Thursday 3 January 2013

अब लिखना जारी रखना...

बहुत दिनों से लिखना चाह रहे थे। नहीं लिखा गया सो नहीं लिखा। लिख पा रहे हैं सो लिखा जा रहा है। इन महीनों में जो कुछ घटित हुआ, घटा या बढ़ा... वह कभी ना कभी कहीं ना कहीं अभिव्यक्त होगा ही अगर लिखने की खराश बनी रही। ये अन्यत्र पुराने लेखों में स्पष्ट किया ही जा चुका ही आदमी की जीवन्तता की पहचान ही है किसी खराश का होना। मरणासन्न व्यक्ति की देह स्पर्श कर  डॉक्टर पूछते हैं - कैसे हो बाबा? कैसी हैं मां जी? अब बाबा या मां जी को खराश अनुभव होती है तो उं हां हैं जैसे मंत्रों के द्वारा इस खराश को व्यक्त करते  है और डॉक्टर उक्त मंत्रों से अंदाजा लगाते हैं कि इसकी सांसे जाते-जाते चली जाएंगी  या जाते-जाते बहुत दूर तक जाकर  पुनः लौट आयेंगी, ये आदमी दुनियां के झमेले में सतत बना रहेगा।

ब्लॉग पर कोई ना कोई समस्या रहती ही है। कभी लेआउट पुराना लगने लगता है, कभी क्या लिखें समझ ही नहीं आता और अब ये जाना कि महीनों लिखने की इच्छा ही नहीं होती। उन जैसे लोगों के बारे में जिनके बारे में ये लिखा था कि .. "कोई महीनों ब्लॉग पर एक पंक्ति भी नहीं लिखता तो यह स्पष्ट होते देर नहीं लगती कि ईश्वर ने इस नाट्यमंच पर उसकी भूमिका की अंतिम पंक्ति लिखकर कलम तोड़ दी है", अब ये बात खुद पर लागू होती दिखी। ये सही भी है क्योंकि बाकी सब रोजाना छापने वालों के लिए तो मृतप्राय ही हुए...

लौटे, तो ब्लॉग पर फोलोअर्स विजेट पर खाली चैकोर डब्बा रह गया था..मित्रों के चेहरे नजर नहीं आ रहे थे... अब भी नजर नहीं आ रहे। यहां-वहां से समाधान जुगाड़ने की कोशिश की पर...अभी तक तो समाधान नहीं दिखा। किसी मित्र के पास समाधान हो तो अवश्य बताये, जताये कि उसने मुझे समाधान सुझाया, धन्यवाद शुक्रिया मेहरबानी.. जैसे आभार शब्द अग्रिम प्रस्तावित हैं।

जब हम अतीत को देखते है तो पता चलता है कि कुछ तो घटिया था, कुछ बेहतर था, कुछ बेहतर हो सकता था और कुछ तो ऐसा हुआ कि अब वैसा भी नहीं हो पा रहा। खैर आदमी की अनुसूचित जाति यानि आदिवासी जनजाति प्रजाति से निकल कर आज सतत विकास कर रही हिन्दी में  अभिव्यक्ति की आजादी का अधिकार ताल पीट कर दुरूपयोग किया जा रहा हो तो किसी को पीछे रहने की जरूरत नहीं। किसी भाषा का विकासशील रहना उसी तरह बड़ी प्रसन्नता की बात होती है जैसे किसी नवजात को बढ़ता देखना... और हिन्दी के साथ भी ऐसा ही है। वो दशकों से विकासशील है.. और आने वाली शताब्दियों तक विकास जारी रहे ऐसी शुभकामनाएं दी जा सकती है। क्योंकि जब कोई भाषा परिपक्व हो जाये तो इंसान के जीवन की तरह ही उस भाषा का अंत भी निकट होता है।
ब्रेक....................
ब्रेक के बाद विषय बदल भी सकता है। वहां स्थिति कुछ ज्यादा ही जीवन्त हो उठती है जब निरन्तर लिखते हुए भी निरन्तर विषय भटक जा रहा हो। इस प्रकार ब्रेक हो या ना हो... आप गुजर रहे हों और इस दौरान ही आपको साथ चल रहे अजनबी हमसफर से कुछ कहना हो तो ... भूमिका या कोई विषय होना जरूरी नहीं.... ब्रेक.....................

मैं होश में था तो फिर उस पे मर गया कैसे....... । पता नहीं भौतिक रूप से कितनी देर तक चले, जहन में भी किसी गीत-संगीत के बजते रहने की कोई सीमा नहीं होती। वो कभी भी शुरू हो सकता है अलसुबह जागने से पहले भी वो सुनाई दे सकता है और रात गये नींद में भी। यही बात अगर आपके मनोनकूल नहीं तो शोर बनकर बड़ी ही त्रासद हो सकती है। मुझे याद नहीं आ रहा वो उस फोबिया सा हो सकता है जो मधुर संगीत से भी हो सकता है। ऋतु बदलने के साथ ही आपको अपने मिजाज के साथ ही बदलना पड़ता है। कभी-कभी आप अपना मिजाज बदल सकते हैं.. कभी कभी आपको अपने मिजाज के हिसाब से बदलना होता है। अंततोगत्वा हावी आप ही होते हैं... कभी अपने से हारकर... कभी जीतकर। कभी लोग अपने पर इतने हावी होते हैं कि अच्छी-भली तंदरूस्ती के मालिक होते हुए जीवन को अलविदा कह जाते हैं और कभी दूसरी तरह हावी होते हैं कि अपूर्ण देह से भी आखिरी सांस तक उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हैं।

ब्रेक...............
ब्रेक के बाद.. इन्दौर शहर से अख्तर हिन्दुस्तानी ने जुल्फों को झटका, अपने भौतिक व्यक्तित्व की भयावहता को भी पटका और नई शुरूआत को यूं कहा कि चलो चलो फिर यहां से शु.................................रू करते हैं। चैनल वालों ने अख्तर को कुछ दिन तो झेला, फिर कहा कि भई आपके हकलाहट भरे अंदाज से आप मानसिक रूप से हकलाई हुई जनता में तो आप रोजाना प्रसिद्ध होते जा रहे हैं पर कुल टी.आर.पी नहीं बढ़ रही सो सच बयानी तो उतनी जारी रहे जितनी चैनल को फायदा पहुंचाये पर हकलाहट को न्यूनतम किया जाय। अख्तर साहब ने अपने अंदाज पर नोटो को बलिहारा और मान गये। अब चैनल वाले चाहें तो छिपने की जगह यानि उनकी जुल्फें कभी भी विदा हो सकती हैं। 

रेडियो तक तो बात एक हद तक संतुलित रहती है.. आदमी कृषि वैज्ञानिक है, कृषि वैज्ञानिक ही रहता है पर टीवी पर कृषिदर्शन पर साक्षात्कार देने आया हो या कविता पढ़ने वो अभिनेता ज्यादा हो जाता है। बाकी सब चीजें पर्दे के पीछे चली जाती हैं। जिनका पर्दें के पीछे कुछ भी नहीं होता वो पर्दें के पीछे की कालिमा से एकरंग हो जाते हैं। 

ब्रेक............
देखो राजेशा इस तरह तुमने पुन: लिखने की शुरूआत की है.. अब लिखना जारी रखना...

5 comments:

संध्या शर्मा said...

बहुत दिनों बाद आपकी पोस्ट पढ़कर अच्छा लगा... जारी रखियेगा लिखना... शुभकामनायें

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार said...



♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
♥♥नव वर्ष मंगलमय हो !♥♥
♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥




देखो राजेशा इस तरह तुमने पुन: लिखने की शुरूआत की है.. अब लिखना जारी रखना...
:)
वापसी मुबारक हो
आदरणीय राजे शा जी !

ब्लॉग फॉलोअर वाकई यहां नज़र तो नहीं आ रहे ... शायद कोई विशेषज्ञ आपकी समस्या का हल कर दे , यही दुआ है ।
विजेट नज़र आता तो मैं शुरुआत कर देता फॉलो करने की ...

आपके मिजाज़ की अगली पोस्ट्स का इंतज़ार रहेगा ...

नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
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Shalini kaushik said...

बिलकुल सही बहुत सही बात कही है आपने .सार्थक अभिव्यक्ति मरम्मत करनी है कसकर दरिन्दे हर शैतान की #

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

शुभकामना !

Anju (Anu) Chaudhary said...

मन के विचारों को यूँ ही लिखते रहें

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