कसाब और जुम्मन एक कार में बम फिट कर रहे थे।
कसाब बोला - अगर इस समय ही यह बम फट जाये तो?
जुम्मन - कोई बात नहीं, मेरे पास दूसरा है ना।
Khud roshan khyaal rahe, sab taraf roshni failaye... Geet gaye, deep jalaye..
मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011
शनिवार, 22 अक्टूबर 2011
मैं तो बाबुल तेरे आँगन की चिड़िया
ऐ बाबुल मेरी विदाई का दिन आया
बरसों खुशियों से तेरा आंगन महकाया
बजी शहनाईयां अब चारों ओर
मुस्कुराते चेहरे और आंसुओं का जोर
याद आयेगा अब, तेरा पलकों पर बैठाना
मेरा रूठना और तेरा मनाना
गलतियों पर तेरा सहज हो समझाना
पोंछ के आंसू गले से लगाना
आशीषें लेकर चली हूं, किसी घर अब पराये
उन रास्तों पर चलूंगी जो तूने दिखाये
कुछ इस तरह अपने फर्जों को निभाउंगी
सबके सम्मान को चार चांद मैं लगाऊंगी
बरसों खुशियों से तेरा आंगन महकाया
बजी शहनाईयां अब चारों ओर
मुस्कुराते चेहरे और आंसुओं का जोर
पर ऐ बाबुल ये कैसी कहानी
पल में ही कैसे हो गई मैं बेगानी
कल तक तो थी तेरी आंखों का सपना
करता पराया, रिश्ता कैसा ये अपना ?
याद आयेगा अब, तेरा पलकों पर बैठाना
मेरा रूठना और तेरा मनाना
गलतियों पर तेरा सहज हो समझाना
पोंछ के आंसू गले से लगाना
जब आई मेरी सेवा करने की बारी
लोग खड़े थे द्वारे, ले डोली की सवारी
जितनी भी मिन्नते कर ले तेरी दुलारी
चिडि़या उड़नी ही है अब तेरी प्यारी
आशीषें लेकर चली हूं, किसी घर अब पराये
उन रास्तों पर चलूंगी जो तूने दिखाये
कुछ इस तरह अपने फर्जों को निभाउंगी
सबके सम्मान को चार चांद मैं लगाऊंगी
रहें सदा आबाद, बेटियां, बाबुल की कलियां
रहें सदा ही शाद, बेटियां चिडि़यां भलियां
मेरी सारी ही उम्रें, बेटियों को लग जायें
जब जिस उम्र में देखूं सदा मुस्कायें
बुधवार, 5 अक्टूबर 2011
बहुत तेज जिन्दगी में जब वक्त मिले... सोचिये
भारतीय त्यौहारों का शुभारंभ मुख्यतः रक्षाबंधन से होता है, फिर जन्मअष्टमी, गणेश चतुर्थी, पितृपक्ष, ईद, नवरात्रि, दशहरा, दीवाली, क्रिमसम, नया साल, 26 जनवरी, होली तक कहानी जारी रहती है।
नवरात्रियों में आखिरी, आज नवमीं तिथि थी। मिश्रा जी की दो बेटियों के सुबह उठने से पहले ही 4 जगह से बुलौवा आ चुका था। बेटियां नहा धोकर तैयार किये जाने के बाद शर्मा जी के यहां जाने के लिए निकलीं तो श्रीमती रामचंदानी उन्हें हाथ पकड़ कर अपने घर घेर ले गईं। घंटे भर बाद बेटियां शर्मा जी के यहां से निकलीं तो घर वापिस नहीं पहुंची, चैहान जी अपने घर ले गये। दोपहर के तीन बजे जब मिश्रा जी की बेटियां घर पहुंचीं तो 5 घरों से कन्याभोज करवाया जा चुका था। बेटियां थकी हुई, खुश थीं कि उन्हें चाॅकलेट, छोटे पर्स, सिक्के और नोट, कुरकुरे आदि मिले थे। कन्याभोज का सिलसिला अष्टमी से ही शुरू हो जाता है और दशमी तक चलता है। इन्हीं तीन दिनों में सभी देवीभक्तों को कन्यापूजन, भोजन करवाना होता है। इन्हीं तीन दिनों में कन्याओं की जरूरत पड़ती है। साल के बाकी 362 दिन कन्याओं की जो पूछपरख होती है, किसी से छिपी नहीं। नवरात्रि के पूर्व पितृपक्ष में बुजुर्गों के दर्शन, उनके हालचाल जानने, पूछपरख का भी यही हाल है।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने बेटियों के संरक्षण, उनकी तरक्की के बारे में जोर शोर से बहुत कुछ कहा है, योजनाएं लाएं हैं। उनमें से एक है लाडली लक्ष्मी योजना इसमें, चुनी गई निर्धन नवजात शिशु कन्याओं का पंजीकरण कर उन्हें वार्षिक आधार पर अच्छी खासी आर्थिक सहायता 5000 वार्षिक (उनके नाम बैंक में जमा कर दी जाती है) दी जाती है। कन्याओं की उम्र के पड़ावों पर जब जब उन्हें आवश्यकता होगी ये राशि काम आयेगी। भली योजना है।
पर सभी कन्याओं को जन्मदाता माता पिता इतने भले नहीं हैं। हमारी सोसायटी के एकबोटे साहब के यहां कन्या ने जन्म लिया। एकबोटे ने उसका नाम सुषमा रखा। एकबोटे कस्ट्रशन में काम आने वाला आयरन, सरिया आदि का काम चलाते हैं। ऊपरी कमाई इतनी कि 5 वर्ष में दो प्लाॅट, दस एफडी, सोने चांदी, कार जैसी चीजों से अमीर हो गये। एकबोटे की बहन एक आंगनवाड़ी में काम करती हैं। उन्होंने अपने भाई की कन्या का पंजीयन लाडली लक्ष्मी योजना में करा दिया, लाडली लक्ष्मी सुषमा को राशि मिलने लगी। एक योग्य जरूरतमंद निर्धन कन्या योजना का लाभ पाने से वंचित रह गई। यही एकबोटे साहब नवरात्रि को कन्याभोज करवाते हैं, कन्याओं के भले की बात करते हैं...तो इसे क्या कहें?
हमारे सभी काम इसी तरह से औपचारिक हैं, साल के विशेष दिनों में पूजे गये पितरों, कन्याओं, देवी देवताओं, ईश्वर... को वर्ष भर बिसराये रखा जाता है। जैसे जीवन का इनसे कोई सबंध ही ना हो।
सब कुछ एक फैशन और सामाजिक भेड़चाल का हिस्सा है। रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों का मात्र एक ही उद्देश्य होता है - धनधान्य की आवक निर्बाध बनी रहे। इस धन से समस्त सुविधाओं, इन्द्रिय भोगों का लक्ष्य पूरा होता रहे। ईश्वर से की जाने वाली यही असली प्रार्थनाएं, अपेक्षाएं और दूजों को दी जाने वाली शुभकामनाएं हैं, बाकी सब औपचारिकताएं हैं।
हमारे पूर्वजों, पंचांग बनाने वालों ने प्रत्येक दिन का एक महत्व देखा था और उस दिन को किये जाने वाले कर्म भी पहचाने थे। ये कर्म एक व्यक्ति को अन्य व्यक्ति से, प्रकृति से और ईश्वर से जोड़ते थे।
लेकिन आज, लोगों का आजीवन एकमात्र ध्येय धन रूपी ईश्वर कमाना ही होता है। धन के लिए समय देना होता है, तो लोग 16 घंटे जुते हुए हैं। नौकरी करने वाले छुट्टियों को भूल गये हैं, नियोक्ता प्रसन्न है...कि अच्छे से अच्छे कम्प्यूटर भी घंटों लगातार चलाये जाने पर हैंग होने लगते हैं...पर इन्हें चलाने वाले आदमी या गुलाम, मशीन से कई गुना ज्यादा मशीनी हैं.... ये रविवार को भी, ईद, दशहरे दिवाली को भी चलते है।
धन एक छद्म लोक का निर्माण करता है। इसे अर्जित करने के लिए लम्बे घंटों वाली, महीनों तक लगातार बिना छुट्टियों की नौकरी है और एक मोटी तनख्वाह है। इस तनख्वाह को पिछले लोन, शाॅपिंग माॅल, बर्थडे या डेट और नये इलेक्ट्रानिक गैजेटस पर खत्म हो जाना हैं। कभी फुर्सत ने आ घेरा तो एलसीडी होम थियेटर, कम्प्यूटर-फेसबुक... इस छद्मलोक में आपको बनाये रखते हैं। उम्र होती जाती है, खोती जाती है.... आपके साक्षात जीवित मित्र ना के बराबर और इंटरनेट पर फोलोअर्स की संख्या बढ़ती जाती है।
कभी-कभी चिंता आ घेरती है कहीं ”कंधे ही कम ना पड़ जायें‘‘ और लोग पिकनिक, पार्टी, कथा, जगराता रख लेते हैं, शादी-ब्याह में शामिल हो जाते हैं।
तो चलिये इस भाग दौड़ में कभी ठहरने का मौका मिले तो देखें कि किस दिन, किस समय, क्या किया जाना जरूरी है...जो किया जाना ही जिन्दगी है। ना कि 24 गुणा 7 गुणा 365 दिन धन का इंतजाम किया जाना। अगर आपने ठहर के पढ़ा है तो बताओ ना मित्र साक्षात कब मिल रहे हो ?
नवरात्रियों में आखिरी, आज नवमीं तिथि थी। मिश्रा जी की दो बेटियों के सुबह उठने से पहले ही 4 जगह से बुलौवा आ चुका था। बेटियां नहा धोकर तैयार किये जाने के बाद शर्मा जी के यहां जाने के लिए निकलीं तो श्रीमती रामचंदानी उन्हें हाथ पकड़ कर अपने घर घेर ले गईं। घंटे भर बाद बेटियां शर्मा जी के यहां से निकलीं तो घर वापिस नहीं पहुंची, चैहान जी अपने घर ले गये। दोपहर के तीन बजे जब मिश्रा जी की बेटियां घर पहुंचीं तो 5 घरों से कन्याभोज करवाया जा चुका था। बेटियां थकी हुई, खुश थीं कि उन्हें चाॅकलेट, छोटे पर्स, सिक्के और नोट, कुरकुरे आदि मिले थे। कन्याभोज का सिलसिला अष्टमी से ही शुरू हो जाता है और दशमी तक चलता है। इन्हीं तीन दिनों में सभी देवीभक्तों को कन्यापूजन, भोजन करवाना होता है। इन्हीं तीन दिनों में कन्याओं की जरूरत पड़ती है। साल के बाकी 362 दिन कन्याओं की जो पूछपरख होती है, किसी से छिपी नहीं। नवरात्रि के पूर्व पितृपक्ष में बुजुर्गों के दर्शन, उनके हालचाल जानने, पूछपरख का भी यही हाल है।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने बेटियों के संरक्षण, उनकी तरक्की के बारे में जोर शोर से बहुत कुछ कहा है, योजनाएं लाएं हैं। उनमें से एक है लाडली लक्ष्मी योजना इसमें, चुनी गई निर्धन नवजात शिशु कन्याओं का पंजीकरण कर उन्हें वार्षिक आधार पर अच्छी खासी आर्थिक सहायता 5000 वार्षिक (उनके नाम बैंक में जमा कर दी जाती है) दी जाती है। कन्याओं की उम्र के पड़ावों पर जब जब उन्हें आवश्यकता होगी ये राशि काम आयेगी। भली योजना है।
पर सभी कन्याओं को जन्मदाता माता पिता इतने भले नहीं हैं। हमारी सोसायटी के एकबोटे साहब के यहां कन्या ने जन्म लिया। एकबोटे ने उसका नाम सुषमा रखा। एकबोटे कस्ट्रशन में काम आने वाला आयरन, सरिया आदि का काम चलाते हैं। ऊपरी कमाई इतनी कि 5 वर्ष में दो प्लाॅट, दस एफडी, सोने चांदी, कार जैसी चीजों से अमीर हो गये। एकबोटे की बहन एक आंगनवाड़ी में काम करती हैं। उन्होंने अपने भाई की कन्या का पंजीयन लाडली लक्ष्मी योजना में करा दिया, लाडली लक्ष्मी सुषमा को राशि मिलने लगी। एक योग्य जरूरतमंद निर्धन कन्या योजना का लाभ पाने से वंचित रह गई। यही एकबोटे साहब नवरात्रि को कन्याभोज करवाते हैं, कन्याओं के भले की बात करते हैं...तो इसे क्या कहें?
हमारे सभी काम इसी तरह से औपचारिक हैं, साल के विशेष दिनों में पूजे गये पितरों, कन्याओं, देवी देवताओं, ईश्वर... को वर्ष भर बिसराये रखा जाता है। जैसे जीवन का इनसे कोई सबंध ही ना हो।
सब कुछ एक फैशन और सामाजिक भेड़चाल का हिस्सा है। रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों का मात्र एक ही उद्देश्य होता है - धनधान्य की आवक निर्बाध बनी रहे। इस धन से समस्त सुविधाओं, इन्द्रिय भोगों का लक्ष्य पूरा होता रहे। ईश्वर से की जाने वाली यही असली प्रार्थनाएं, अपेक्षाएं और दूजों को दी जाने वाली शुभकामनाएं हैं, बाकी सब औपचारिकताएं हैं।
हमारे पूर्वजों, पंचांग बनाने वालों ने प्रत्येक दिन का एक महत्व देखा था और उस दिन को किये जाने वाले कर्म भी पहचाने थे। ये कर्म एक व्यक्ति को अन्य व्यक्ति से, प्रकृति से और ईश्वर से जोड़ते थे।
लेकिन आज, लोगों का आजीवन एकमात्र ध्येय धन रूपी ईश्वर कमाना ही होता है। धन के लिए समय देना होता है, तो लोग 16 घंटे जुते हुए हैं। नौकरी करने वाले छुट्टियों को भूल गये हैं, नियोक्ता प्रसन्न है...कि अच्छे से अच्छे कम्प्यूटर भी घंटों लगातार चलाये जाने पर हैंग होने लगते हैं...पर इन्हें चलाने वाले आदमी या गुलाम, मशीन से कई गुना ज्यादा मशीनी हैं.... ये रविवार को भी, ईद, दशहरे दिवाली को भी चलते है।
धन एक छद्म लोक का निर्माण करता है। इसे अर्जित करने के लिए लम्बे घंटों वाली, महीनों तक लगातार बिना छुट्टियों की नौकरी है और एक मोटी तनख्वाह है। इस तनख्वाह को पिछले लोन, शाॅपिंग माॅल, बर्थडे या डेट और नये इलेक्ट्रानिक गैजेटस पर खत्म हो जाना हैं। कभी फुर्सत ने आ घेरा तो एलसीडी होम थियेटर, कम्प्यूटर-फेसबुक... इस छद्मलोक में आपको बनाये रखते हैं। उम्र होती जाती है, खोती जाती है.... आपके साक्षात जीवित मित्र ना के बराबर और इंटरनेट पर फोलोअर्स की संख्या बढ़ती जाती है।
कभी-कभी चिंता आ घेरती है कहीं ”कंधे ही कम ना पड़ जायें‘‘ और लोग पिकनिक, पार्टी, कथा, जगराता रख लेते हैं, शादी-ब्याह में शामिल हो जाते हैं।
तो चलिये इस भाग दौड़ में कभी ठहरने का मौका मिले तो देखें कि किस दिन, किस समय, क्या किया जाना जरूरी है...जो किया जाना ही जिन्दगी है। ना कि 24 गुणा 7 गुणा 365 दिन धन का इंतजाम किया जाना। अगर आपने ठहर के पढ़ा है तो बताओ ना मित्र साक्षात कब मिल रहे हो ?
सदस्यता लें
संदेश (Atom)