जन्म से अधूरे हम, लाख मांगी मनौतियां,
कब होंगे पूरे हम?
जिस मां से जन्म थे, वह भी तो सहमी थी
बीते कल में डूबी, आज से तो वहमी थी
सोचें क्या अब हट के, जड़ता के बूरे हम
जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?
अपने ही हाथों से, भय को सजाया है,
पाया जो, उस पर भी, जोखिमों का साया है
आशंका की छत के, ऊपरी कंगूरे हम
जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?
कोई, कैसी हो सांत्वना, रास नहीं आती है
मिटने की अभिलाषा, फिर-फिर सिर उठाती है
जन्मते ही खोया सब, विषफल के चूरे हम
जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?
कब होंगे पूरे हम?
जिस मां से जन्म थे, वह भी तो सहमी थी
बीते कल में डूबी, आज से तो वहमी थी
सोचें क्या अब हट के, जड़ता के बूरे हम
जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?
अपने ही हाथों से, भय को सजाया है,
पाया जो, उस पर भी, जोखिमों का साया है
आशंका की छत के, ऊपरी कंगूरे हम
जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?
कोई, कैसी हो सांत्वना, रास नहीं आती है
मिटने की अभिलाषा, फिर-फिर सिर उठाती है
जन्मते ही खोया सब, विषफल के चूरे हम
जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?
10 टिप्पणियां:
सुन्दर भावाव्यक्ति।
सुन्दर....
सुन्दर अभिवयक्ति......
सच है - जन्मते ही खोया सब, विषफल के चूरे हम, जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?.....कभी-कभी तो लगता है शायद ऐसा कभी हो ही नहीं पाएगा कि यह अधूरापन कभी खत्म होगा...
बहुत भावपूर्ण रचना...भावों ने मन को अंदर तक भिगो दिया.. !
WAAH...ADBHUT BHAAV PIROYE HAIN AAPNE APNI RACHNA MEN...BEJOD...BADHAI SWIIKAREN
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति… दिल को छूने वाली…
♥
बहुत सुंदर और हृदयग्राही रचना के लिए आभार ! बधाई !!
साथ ही…
आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
कोई, कैसी हो सांत्वना, रास नहीं आती है
मिटने की अभिलाषा, फिर-फिर सिर उठाती है
अंतस का द्वन्द बेबाकी से उकेरा है आपने...साधूवाद........
Bahut Achhi Rachna
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