सोमवार, 26 सितंबर 2011

कब होंगे पूरे हम?



जन्म से अधूरे हम, लाख मांगी मनौतियां,
कब होंगे पूरे हम?

जिस मां से जन्म थे, वह भी तो सहमी थी
बीते कल में डूबी, आज से तो वहमी थी
सोचें क्या अब हट के, जड़ता के बूरे हम
जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?

अपने ही हाथों से, भय को सजाया है,
पाया जो, उस पर भी, जोखिमों का साया है
आशंका की छत के, ऊपरी कंगूरे हम
जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?

कोई, कैसी हो सांत्वना, रास नहीं आती है
मिटने की अभिलाषा, फि‍र-फि‍र सिर उठाती है
जन्मते ही खोया सब, विषफल के चूरे हम
जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?

10 टिप्‍पणियां:

vandana gupta ने कहा…

सुन्दर भावाव्यक्ति।

विभूति" ने कहा…

सुन्दर....

विभूति" ने कहा…

सुन्दर अभिवयक्ति......

pragya ने कहा…

सच है - जन्मते ही खोया सब, विषफल के चूरे हम, जन्म से अधूरे हम, कब होंगे पूरे हम?.....कभी-कभी तो लगता है शायद ऐसा कभी हो ही नहीं पाएगा कि यह अधूरापन कभी खत्म होगा...

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत भावपूर्ण रचना...भावों ने मन को अंदर तक भिगो दिया.. !

नीरज गोस्वामी ने कहा…

WAAH...ADBHUT BHAAV PIROYE HAIN AAPNE APNI RACHNA MEN...BEJOD...BADHAI SWIIKAREN

Rashmi Swaroop ने कहा…

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति… दिल को छूने वाली…

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…




बहुत सुंदर और हृदयग्राही रचना के लिए आभार ! बधाई !!


साथ ही…
आपको सपरिवार
नवरात्रि पर्व की बधाई और शुभकामनाएं-मंगलकामनाएं !

-राजेन्द्र स्वर्णकार

बेनामी ने कहा…

कोई, कैसी हो सांत्वना, रास नहीं आती है
मिटने की अभिलाषा, फि‍र-फि‍र सिर उठाती है
अंतस का द्वन्द बेबाकी से उकेरा है आपने...साधूवाद........

हास्य-व्यंग्य का रंग गोपाल तिवारी के संग ने कहा…

Bahut Achhi Rachna

एक टिप्पणी भेजें