"मैं" कुछ पढ़ूं और
अगर, वो
बहुत ही विस्मयकारी,, रूचिकर और बेहतरीन हो
तो "मैं" सोचता हूँ, "मैं" तो कभी भी ऐसा उत्कृष्ट नहीं सोच पाऊंगा
और मुझे ग्लानि होती है
कि कितनी साधारण है मेरी सोच
कि क्या मुझे अपनी ‘सोच’ को, सोच कहना भी चाहिए?
ऐसी हीनभावना उठाने वाली किताब
"मैं" पटक देता हूं।
"मैं" कुछ पढ़ूं
और वो साधारण हो
तो "मैं" सोचता हूँ,
लो, इससे बेहतर तो "मैं" लिख सकता हूं!
"मैं" लिखता ही हूं।
"मैं" इस तरह की चीजें क्यों पढ़ूं?
और "मैं" किताब पटक देता हूं।
फिर
"मैं" ने कुछ लिखा,
और किसी ने नहीं पढ़ा
तो भी "मैं"
अपनी किताब उठाता हूं
और पटक देता हूं।
इन लोगों की समझ में कुछ नहीं आयेगा।
फिर मैंने
दूसरों का लिखा पढ़ना,
खुद लिखना,
और अपना लिखा दूसरों को पढ़ाना
छोड़ दिया।
अब मुक्त हूं,
हर तरह के
"मैं" पन से।
Kavita, Ego, Read-Write, Poetry, Rajeysha पढ्ना-लिखना, कविता, अहं
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कैसे दुख से मुक्त हुआ जाये
9 टिप्पणियां:
Lovely...
awesome lines u have written, they touched my thoughts.just amazing.
Very deep, I liked the thought around which this poem is revolving. Last lines are beautiful...
sashakt abhivyakti.badhai.
सभी आदरणीयों संतोष, क्रिस्टी, शालिनी, सरू, वेंकट, सीमा, तान, इन्दु, दीपक का हार्दिक आभार
interesting yaar
bahut umda, badhai
sabke "main" ki yahi 'khatarnaak' si kahaani hai..
par aapne badi hi aasaani aur khoobsoorti se likh daali hai...
lajawab.. :)
वाह! क्या सोच है.. "मैं" तो इतनी गहराई की बात सोच ही नहीं पाऊंगा.. पर ब्लॉग को पटक नहीं सकते हैं.. इसलिए अनुयायी बन जाता हूँ :)
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