Friday 2 September 2011

मेरा आपसे रि‍श्‍ता


"मैं" कुछ पढ़ूं और
अगर, वो
बहुत ही विस्मयकारी,, रूचिकर और बेहतरीन हो
तो "मैं" सोचता हूँ, "मैं" तो कभी भी ऐसा उत्कृष्‍ट नहीं सोच पाऊंगा
और मुझे ग्लानि होती है
कि कितनी साधारण है मेरी सोच
कि क्या मुझे अपनी ‘सोच’ को, सोच कहना भी चाहिए?
ऐसी हीनभावना उठाने वाली किताब
"मैं" पटक देता हूं।

"मैं" कुछ पढ़ूं
और वो साधारण हो
तो "मैं" सोचता हूँ,
लो, इससे बेहतर तो "मैं" लिख सकता हूं!
"मैं" लिखता ही हूं।
"मैं"  इस तरह की चीजें क्यों पढ़ूं?
और "मैं" किताब पटक देता हूं।

फिर
"मैं" ने कुछ लिखा,
और किसी ने नहीं पढ़ा
तो भी "मैं"
अपनी किताब उठाता हूं
और पटक देता हूं।
इन लोगों की समझ में कुछ नहीं आयेगा।


फिर मैंने
दूसरों का लिखा पढ़ना,
खुद लिखना,
और अपना लिखा दूसरों को पढ़ाना
छोड़ दिया।

अब मुक्त हूं,
हर तरह  के
"मैं"  पन से।
 


Kavita, Ego, Read-Write, Poetry, Rajeysha पढ्ना-लि‍खना, कवि‍ता, अहं


इस लि‍न्‍क पर देखें 
कैसे दुख से मुक्त हुआ जाये

9 comments:

Saru Singhal said...

Lovely...

induravisinghj said...

awesome lines u have written, they touched my thoughts.just amazing.

Saru Singhal said...

Very deep, I liked the thought around which this poem is revolving. Last lines are beautiful...

Shalini kaushik said...

sashakt abhivyakti.badhai.

Rajeysha said...

सभी आदरणीयों संतोष, क्रिस्टी, शालिनी, सरू, वेंकट, सीमा, तान, इन्दु, दीपक का हार्दिक आभार

दीपक बाबा said...

interesting yaar

amrendra "amar" said...

bahut umda, badhai

Rashmi Swaroop said...

sabke "main" ki yahi 'khatarnaak' si kahaani hai..
par aapne badi hi aasaani aur khoobsoorti se likh daali hai...

lajawab.. :)

Pratik Maheshwari said...

वाह! क्या सोच है.. "मैं" तो इतनी गहराई की बात सोच ही नहीं पाऊंगा.. पर ब्लॉग को पटक नहीं सकते हैं.. इसलिए अनुयायी बन जाता हूँ :)

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