एक सुन्दरतम सन्ध्या
जब पावन काल
किसी साध्वी की मौन आराधना सा
शांत और मुक्त है।
इस खामोशी की मदहोशी में
एक सूरज
सागर के हर किनारे पर
अपने आप डूब रहा है।
स्वर्गीय विनम्रता
सागर की स्निग्ध छाती पर
उग आयी है।
सुनो
परमचेतना
जाग रही है।
उसके उगते हुए स्वरों में
किसी अत्यंतिक
तूफान सी सरसराहट है।
मेरे साथियों
यह प्रकृति कहीं भी
कम दिव्य नहीं है।
अपने सीने में
रहने वाले हर्ष को
सदैव महसूस करो।
उसी हर्ष के मन्दिर में
हमारी बाहरी भटकनों को जानने वाला
परमात्मा भी है।
भले ही हम उसे ना जानते हों।
विलियम वर्डसवर्थ की कविता का अनुभव
4 टिप्पणियां:
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें
बहुत सुन्दर्…………यही सत्य है।
अपने सीने में
रहने वाले हर्ष को
सदैव महसूस करो।
उसी हर्ष के मन्दिर में
हमारी बाहरी भटकनों को जानने वाला
परमात्मा भी है।
भले ही हम उसे ना जानते हों।
बहुत सुंदर बात कही है...
http://shikanjee.blogspot.com/
वर्डसवर्थ को इतना सुंदर अनूदित करना कोई खेल नहीं है. बहुत सुंदर काम किया है आपने. पढ़वाने के लिए आभार.
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