सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

मोहसि‍न का हदयस्‍पर्शी कलाम


मेरे कातिल को पुकारो कि मैं जिन्दा हूं अभी
फिर से मक्तल को संवारो कि मैं जिन्दा हूं अभी

ये शब-ए-हिज्र तो साथी है मेरी बरसों से
जाओ सो जाओ सितारों कि मैं जिन्दा हूं अभी

ये परेशान से गेसू नहीं देखे जाते
अपनी जुल्फों को संवारो कि मैं जिन्दा हूं अभी

लाख मौजों में घिरा हूं, अभी डूबा तो नहीं
मुझको साहिल से पुकारो कि मैं जिन्दा हूं अभी

कब्र से आ भी ‘मोहसिन’ कि आती है सदा
तुम कहां हो मेरे यारों कि मैं जिन्दा हूं अभी

------------------------------------------------------
मक्तल - कत्ल का स्थान
शब ए हिज्र- विरह की रात
गेसू - चेहरे पर आई लट

------------------------------------------------------

वो अक्सर मुझसे कहती थी
वफा है जात औरत की
मगर जो मर्द होते हैं
बहुत बे-दर्द होते हैं
किसी भंवरे की सूरत
गुल की खुशबू लूट जाते हैं
सुनो तुम को कसम मेरी
रिवायत तोड़ देना तुम
ना तन्हा छोड़ कर जाना
ना ये दिल तोड़ कर जाना

मगर फिर यूं हुआ मोहसिन
मुझे अनजान रास्तों पर
अकेला छोड़ कर उस ने
मेरा दिल तोड़ कर उस ने
मोहब्बत छोड़ दी उस ने
वफा है जात औरत की
रिवायत तोड़ दी उसने

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें