उस झुकी निगाह को, इंकार कैसे करते हम
याद रही है जन्म भर, फिर वो झुकी निगाह
जब्त कर के चाह को, आह भर कर रह गये
मर गये उस लम्हे में, न कभी उठी निगाह
जमाना भर हमदर्द था, दर्द ना वो कभी मिटा
जिसने हमको देखा बोला, कैसी लुटी निगाह?
सिसकियां जीते रहे, हिचकियों में रातें कटीं
आईने से बातें थीं, थी दम घुटी निगाह
जाने कब तुझे खो दिया, दिल अश्कों में डुबो दिया
लख लानतें मेरी नजर पर, कैसे चुकी निगाह
11 टिप्पणियां:
जाने कब तुझे खो दिया, दिल अश्कों में डुबो दिया
लख लानतें मेरी नजर पर, कैसे चुकी निगाह
उक्ने चले जाने के बाद ये तो होना ही था ........ किसी को खो देना आसान नही ... बहुत लाजवाब रचना है ...
...
जमाना भर हमदर्द था, दर्द ना वो कभी मिटा
जिसने हमको देखा बोला, कैसी लुटी निगाह?
इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति ।
सिसकियां जीते रहे, हिचकियों में रातें कटीं
आईने से बातें थीं, थी दम घुटी निगाह
bahut acchee lagee aapkee ye gazal ......
sundar rachna.
जाने कब तुझे खो दिया, दिल अश्कों में डुबो दिया
लख लानतें मेरी नजर पर, कैसे चुकी निगाह
लाजवाब रचना शुभकामनायें
ग़ज़ल क़ाबिले-तारीफ़ है।
जमाना भर हमदर्द था, दर्द ना वो कभी मिटा
जिसने हमको देखा बोला, कैसी लुटी निगाह?
इन पंक्तियों ने दिल को छू लिया..... बहुत सुंदर और लाजवाब रचना....
सिसकियां जीते रहे, हिचकियों में रातें कटीं.....bahut badhiyaa
nice one....
Sunder rachana hai. Hardik badhai
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