बाघ बचाओ, मिसाल बनाओ।
हमारा राष्ट्रीय वन्य जीव जिन्दगी और मौत के संघर्ष में झूल रहा है। एक मोटे अनुमान अनुसार 19वीं सदी में बाघों की आबादी 40,000 थी जो 20वीं सदी और अब तक घटते-घटते 1411 पर पहुंच गई है। इस हिसाब से बुरे आदमी की हवस और भले इंसानों की नजरअंदाजी कितनी तेजी से अमल में आयी है; इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।याद रखिये 5 अरब मानवों को अपने जीवन की एकरसता और ऊब से बचाने के लिए ही नहीं, प्राकृतिक चक्र की संतुलित गति के लिए भी विविध जैव प्रजातियों का संरक्षण अपरिहार्य है। यह वैज्ञानिक रूप से भी पृथ्वीवासियों के लिए आवश्यक है।
यदि अब हमने कुछ ना किया या, इस बात को नजरअंदाज किया तो हमारे राष्ट्रीय चिन्हों के रूप में अन्य जीव ढूंढने होंगे। तो क्यों ना उसी जीव का संरक्षण करें, जिसकी मिसालें इंसान के व्यक्तित्व का हिस्सा हैं।
मेरे विचार से बाघ और सिंह के संरक्षण में हम इस प्रकार से योगदान कर सकते हैं:
- यदि आपके क्षेत्र के आसपास कहीं बाघ पाया जाता हो तो उनके जीवन के बारे में जाने, नियमित रूप से उनकी प्रगति, विकास का ध्यान रखें।
- यदि आपके आसपास के वन्य उद्यान/चिड़ियाघर/जू में बाघ हो तो यथासंभव नियमित अन्तराल से उसकी जानकारी लें। अपने मित्रों, परिजनों, बच्चों को बाघ के बारे में विस्तृत रूप से बतायें।
- यदि आपको बाघ को हानि पहुंचाने वाली किसी भी मानवीय गतिविधि का पता चले तो कानून की मदद करें और बाघ को बचायें।
- बाघ और ऐसे ही अन्य विलुप्तप्राय जीवों की जिन्दगी बचाने के अन्य उपाय भी सोचें, यथासंभव प्रचार प्रसार करें और जितना बन पड़े अमल में लायें।
बाघों-शेरों के बारे में मेरा अपना अनुभव यह रहा है कि भोपाल तालाब के किनारे स्थित ‘‘वनविहार‘‘ में मैंने अपने जीवन भर में दो चार बार इनके दर्शन किये हैं। यहीं पर मैंने एक दो बार हष्ट-पुष्ट बाघ देखे। एक बार माँ बाघिन भी देखी । एक बार दो बढ़ते हुए शावक देखे। सफेद बाघ को देखने का दुर्लभ नजारा भी हुआ। वैसे वनविहार का प्रबंधन ऐसा है कि जीवों को घूमने फिरने विचरने की सुविधा रहती है, इसलिए आपको इनके दर्शन के लिए अपनी किस्मत का सहारा लेना पड़ता है। वैसे इनको भोजन पानी देने के समय और वनविहार कर्मियों से विस्तृत जानकारी लेकर इन दुर्लभ जीवों के दर्शन संभव हैं।
बीच - बीच में भोपाल के अखबारों में बाघ, सिंह और अन्य प्राणियों के वनविहार में आने-जाने की खबरें पढ़ते-सुनते हैं। पर वर्ष 2009 में कई दुखद खबरें ही ज्यादा सुनने को मिलीं।
जैसे बाबा रामदेव ने आयुर्वेदिक औषधियों में हड्डियों के प्रयोग की बात कही वैसे ही चीनी दवाओं में जीवों के अंगों का इस्तेमाल होता है। बाघ की हडिड्यों का पावडर मनुष्य के शरीर में कामोत्तेजनवर्धक होने के कारण भी बाघों का बहुतायत में शिकार किया गया।
कौन जिम्मेदार नहीं है- वो अमीर, जिनके शो केसों में बाघ की खाल लटकी या तख्तों पर बिछी होती है, वो साधु सन्यासी जो बाघ की खालों को योग-ध्यान हेतु आसन बनाते हैं, वो गरीब जो जगह की तलाश में बाघ के ठिकानों के आसपास झोपड़ियां बना लेते हैं और वो हम शहरी लोग - जो सलाखों के पीछे जू में इसकी मजबूरी का तमाशा देखते हैं।
मैंने वर्ष 2009 में दिल्ली यात्रा के दौरान राष्ट्रीय प्राणी उद्यान ‘‘जू’’ में में बाघों और सिंह को दयनीय हालत में देखा। ऐसा लगा खुजली खाये कुत्तों से गई बीती हालत में हैं। यही हालत कई प्रकार के दुर्लभ जीवों की थी। कोई भी संस्थान या सरकारें भ्रष्टाचार, मंहगाई और आम आदमी के जीवन को और मुश्किल बनाने में ही सहायक होती हैं। अतः कुछ करना है तो प्रत्येक व्यक्ति यथासार्मथ्य अपने व्यक्तिगत स्तर पर जो भी छोटा या क्षुद्र सा भी बन पड़े वो करें, क्योंकि यही अत्यंत महत्वपूर्ण है।
”रात बितायी सोय के दिवस बितायो खाय, हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाये।“ संतों की उक्तियों में वर्णित, अपने दो कौड़ी के जीवन को ईश्वरीय सौगातों से भरें। विविध जैव प्रजातियों को बचाइये, अपना जीवन समृद्ध कीजिये, पुण्य लाभ लीजिये।
4 टिप्पणियां:
सार्थक और सामयिक पोस्ट।
वन्य जीवन इंसान की लालच की प्रवर्ती की भेंट चढ़ रहा है।
लेकिन सरकार को भी सख्ताई से पेश आना चाहिए, इन बाघखोरो के साथ।
हम तो बस दुआ कर सकते हैं।
aapki post se baghon ki durdasha ka andaza huaa ........aabhar...........avashya aavashyak kadam uthaye jane chahiye.
इंसान को जागने में अभी बहुत व्क़्त लगेगा .... सबको ख़त्म करते करते एक दिन खुद को भी ख़त्म कर कर चैन लेगा .... काश हम जाग जाएँ ..........
मुझे तो 1411 पर भी शक है. क्या इतने भी हैं! स्थिति वास्तव में ही चिंताजनक है. इतना सुंदर बाघ कही ख़त्म ही न हो जाए
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