बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

बेखुदी में भी, मुझे तेरा खयाल रहता है


बेखुदी में भी, मुझे तेरा खयाल रहता है
हो ना हो तू, यहां तेरा कमाल रहता है

क्या हुआ आज जमाना बुरा है मुझसे तो
कि गुजरा कल ही इसकी मिसाल रहता है

क्या पता, फिर मिले, जाने कहां, किस सूरत में
तेरी हर याद को, मेरा दिल सम्हाल रहता है

रोज ही रात महकती, चहकती, दमकती है
हो न हो, तू मेरी नजर, तेरा जमाल रहता है

तू माफ कर दे मुझे, पर यही मुसीबत है
रोज ही मुझमें, कोई नया बवाल रहता है

शाम होते ही जैसे दिल भी डूबा जाता है
रोज सूरज की शक्ल, नया सवाल रहता है

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

मेरी आरजू...कमीनी। मेरे ख्‍वाब भी....कमीने....।


एक छोटा सा तथ्य आदमी के चरित्र का सारा बखिया उधेड़ देता है। आज तक के मानवीय इतिहास में हमने देखा है कि कोई भी देश अपने सर्वश्रेष्ठ महानगरों में आधुनिकता और कृत्रिम सभ्यता ही नहीं, उस काल्पनिक नर्क को भी यथार्थ में पालता है जो कि कई धर्मों में सविस्तार वर्णित हैं।

“भारत के आई.टी.सिरमौर शहर बैंगलोर में यदि आप अगली बार किसी मधुशाला में जायें तो संभव है कोई साकी सलीकेदार सलवार कुर्ते जैसा परिधान पहने जाम पेश करे।” खबर छोटी सी है पर विचार की कसौटी पर रखने पर मानव के व्यक्तित्व संबंधी कई सवाल पैदा करती है।

व्यावहारिक और व्यवस्थासम्पन्न बात तो ये है कि आपको शराबखाने में हट्टे-कट्टे-मुस्टंडों द्वारा शराब परोसी जाये, ताकि आपका चरित्र जब पीकर अपना जौहर दिखाने को हो तो उसे सक्षम प्रत्युत्तर देने का सामान तैयार रहे। लेकिन आप ऐसे मदिरालय के ग्राहक नहीं बनेंगे।

तो थोड़ा और आगे बढ़कर मधुशालामालिक आपको एक महिला के हाथों शराब पेश करना शुरू करता है। आदमी उस बार में जाना शुरू करते हैं, क्योंकि उसे ‘शराब और शबाब’ के संयोजन का साकार रूप उपलब्ध होता है।

होशपूर्वक देह की उत्तेजनाओं में गर्क होने में सभी स्त्री-पुरूष सक्षम नहीं होते। शराबी पैसे का मुंह नहीं देखता। शराबखाना संचालक भी आदमी के बेहोश होकर दैहिक उत्तेजनाओं के आनन्द लेने को थोड़ा और सम्बल प्रदान करता है। वो आदमी के लिए सभी उम्र, देहाकार वाली स्त्रियां ‘‘साकी’’ के पद पर नियुक्त करता है।

अब आदमी को अपने चर्मचक्षुओं और कल्पनाओं के धुआंे के छल्लों को कुछ और रंगीन करने का साक्षात जीवन्त सामान मिल जाता है। पीने के बाद बातें और आगे बढ़ती हैं। पर कौन कम्बख्त इन बातों को रोकना चाहता है- न शराबी, न मधुशालास्वामी, न झीने वस्त्रों में आवृत्त साकी।

ये संसार है और कुछ लोग ये मान के चलते हैं कि कुछ नर्क गढ़ना संसारी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों में से एक है। लेकिन होश आने पर जब पिछली रात के नारकीय दृश्य रह रह कर नजर आते हैं तो वो उसे सलीकों का जामा पहनाना शुरू करता है। ”साकी के लिए सलवार कुर्ते और अन्य सलीकेदार सु-श्लील परिधान“ - क्या इसी तरह का पाखण्ड नहीं? हो सकता है आने वाले वर्षों में वेश्याओं के लिए कुछ तरह के टीकाकरण अभियान अनिवार्य कर दिये जायें ताकि पुरूषों को एड्स या अन्य संक्रामक बीमारियों से बचाया जा सके।

लेकिन अपनी हवस के निवारणार्थ ईसामसीह, बुद्ध, नानक, कबीर द्वारा बताये उपायों को लागू करने के लिए एक आम आदमी को व्यक्तिगत रूप से ही आगे आना होगा। ये काम सामाजिक संस्थाओं या सरकारों पर टालना उन्हें अमल में ना लाने के बहाने के सिवा कुछ भी नहीं।

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

मनुष्य का मशीनीकरण

 
जब रेडियो, टी.वी., सिनेमा, कम्प्यूटर आदि दृश्य-श्रव्य के मनोरंजन के साधन नहीं थे आदमी के पास मनोरंजन शब्द के क्या अर्थ थे? यह प्रश्न आज के प्रत्येक मनुष्य को सोचना चाहिये। क्योंकि इसी प्रश्न के उत्तर में मनुष्य के सामने आ खड़ी हुई कई समस्याओं का हल है। सोचिये ? क्या तब आदमी के पास “बोर होना” जैसी शब्दावली थी। क्या वह उस तरह की जिन्दगी से बोर होता था? या क्या उसके पास बोर होने का समय था?
आज के आदमी के पास चमत्कारी साधन मोबाइल फोन है, वह 25 घंटे 365 दिन अपने सम्बन्धियों के सम्पर्कों में रह सकता है। पर हुआ उल्टा है उसके सभी जिन्दा सम्बंध मुर्दानगी में बदल गये हैं। पड़ोसी से भी वह सेलफोन पर ही बात कर पाता है, यहां तक कि माँ-बाप-बीवी-बच्चों से भी दो साधारण बोल बोलने का मौका मोबाइल फोन पर ही मिल पाता है। और इन दो बोलों के अर्थ भी कितने सतही हैं, सब जानते हैं। वजह? वजह है आदमी का मशीनीकरण।

उस जमाने में आदमी के पास सुबह उठकर रेडियो, टीवी, आईपॉड का बटन ऑन कर या इन्टरनेट पर बैठ जाने के विकल्प नहीं थे, तो क्या यह उसके लिये मुश्किल पैदा करता था कि अब वो क्या करे? नहीं। आदमी के पास भरपूर समय था। आलसी से आलसी आदमी के पास भी सुबह उठकर सैर, कसरत, दातुन-स्नान, शौच के बहाने दूर निकल जाने की नैसर्गिक प्रेरणाएं थीं। उसके बाद काम धंधे पर लग जाने में भी आदमी दिन भर अपनी ही तरह की अन्य आदमजात प्राणियों के सम्पर्क में रहता था। शाम को भी गलियों, चौराहों, बाजारों, दुकानों पर मेल मुलाकातों के दौर चलते थे।

आज का आदमी देर रात तक कामधंधे या नौकरी से लौटता है, सुबह देर से उठता है और फिर सारा दिन वाहनों, कम्प्यूटरों, रेडियो, टी.वी., मोबाइल फोन के कृत्रिम सम्पर्कों में उलझा रहता है। कोशिश करके जिम वगैरह जाकर सेहत बनाने की कोशिश करता है तो भी सांस तो इसी वातावरण में लेनी है। जितना धुंआ उसकी कार फेंकती है उतना ही धुंआ प्रतियोगिता में उसके पड़ोसियों के वाहन, इस तरह आज के मनुष्य ने अपने लिए नर्क खुद ही गढ़ रखा है।

उस समय की कल्पना कीजिये जब आदमी के घर में मां-बाप, भाई बहन के रिश्ते थे और दो चार बाल बच्चे। आवागमन के साधन के रूप में पशुओं द्वारा खींचे जाने वाले वाहन थे। आदमी सुबह उठता और यदि उसका कहीं आने जाने का इरादा है तो उसे अपने गधे, घोड़े या बैल की सेहत, हाल-चाल पूछना जानना बहुत जरूरी थे क्योंकि उसके बिना किसी लम्बी यात्रा की कल्पना करना फिजूल था। इस प्रकार विभिन्न प्रकार के सरोकारों से सुअर, गाय घोड़े, गधे, कुत्ते, चिड़िया, कौए, गिद्ध आदि की देखरेख अपने आप ही हो जाया करती थी, ये नगर-निगम के संभालने के चीजें नहीं थे। अब दूसरी बात ये कि क्या आपने इतिहास में कोई ऐसी घटना पढ़ी है - जब अनायास किसी राहगीर की मौत  घोड़ा, बैल या गधे से चलने वाली गाड़ी से कुचल जाने से हो गई हो? जबकि आज देश में प्रत्येक दिन, हर घंटे सैकड़ो वाहन दुर्घटनाओं में हजारों लोग काल कवलित हो जाते हैं। सुबह आदमी घर से निकलता है तो शाम को तय नहीं होता कि वह घर सकुशल पहुंच ही जायेगा और इसी को हम, आदमी की तरक्की कहते हैं।
आज के आदर्श जीवन जीने वाले आदमी की यथार्थ स्थिति देखिये।
देर रात गये वह घर लौटता है। रातभर ए सी, पंखे कूलर या हीटर की हवा में सोता है। देर सुबह उठकर वह एक मशीन के अलार्म से जागता है, जिम जाता है यानि मशीनों से कार्यव्यवहार। घर में ड्राइंगरूम, बेडरूम, बाथरूम, रसोई, छत, आंगन, लॉन सब जगह यहां वहां खड़े बिजली से चलने वाले उपकरणों से उसका वास्ता पड़ता है। आदमी का काम होता है बटन दबाना बाकी सब चीजें अपने आप काम करती हैं। इस तरह इन उपकरणों ने आदमी से उसके आदमजात प्राणियों के संबंध छीन लिये हैं या कहें कि उनका स्थान इन मशीनों ने ले लिया है। अब आदमजात प्राणी इस आदमी को और ये आदमी उनको, हर क्षण प्रभावित करते थे, लेकिन ये मशीने? इन्हें आदमी क्या प्रभावित करेगा, इनसे ही आदमी प्रभावित रहता है। इन मशीनों का प्रभाव ये होता है कि उसके शरीर के ही कुछ अंग इन मशीनों के पुर्जों जैसे काम करने लगते हैं। यानि शरीर को पंखे, गीजर, टोस्टर, मिक्सर, ग्रांइन्डर, एसी कूलर, हीटर, हीट आयरन, कार, कम्प्यूटर, फोन इन सबकी जरूरत अपरिहार्य अंगों जैसे ही पड़ने लगी है। इनमें से यदि कुछ भी खराब होता है तो आदमी के शरीर की हालत तुरन्त पतली हो जाती है। आदमी की बेचैनी देखते बनती है। ऐसा लगने लगता है कि आदमी के प्राण तो इन मशीनों में हैं। जबकि पिछले हजारों साल आदमजात ने इन मशीनों की कल्पना से भी अजनबी रहते हुए बिताये हैं। ये मशीने तो उस जिन्न की तरह हो गई हैं जि‍न्‍हें पैदा होने के बाद कुछ ना कुछ करना ही है और आदमी इस कुचक्र में फंस गया है कि इनके लिए कोई ना कोई काम तलाश कर के रखे वर्ना ये मशीने उसे ही निगल जायेंगी।

अब इस लेखनुमा निवेदन का आशय यह नहीं कि पुराने पत्थर युग में लौट जाने की गुजारिश की जा रही है और मशीनीकरण से निजात पाने की जुगत सोची जाये.... कहना यह है कि आदमी, आदमी रहे इसकी कोशिश की जा सकती है।
यदि मौका और मौसम मिले तो रात को पंखे, एसी, हीटर की हवा के बगैर सोने  में क्या बुराई है? सुबह उठकर पार्क में जाकर सबके साथ योग, नृत्य या मार्शल आर्टस जैसे किसी साधन या घर में ही शरीर को हिलायें डुलायें ना कि मशीनों का सहारा लें। यदि दोपहिया वाहन से काम धंधे नौकरी पर जा रहे हैं तो किसी ऐसा ही मक्सद रखने वाले व्यक्ति को साथ ले लें। सामान ढोने जैसी वजह या 4-5 आदमियों के बगैर कार से यात्रा का क्या मजा हो सकता है? 24 घंटे मोबाइल फोन पास रखने से इसके विकिरण के दुष्प्रभावों का प्रसाद लेने से अच्छा है एक नियत समय पर ही इसका प्रयोग हो। यदि यात्रा आदि में ना रहना पड़ रहा हो तो, तो इसका प्रयोग लेंडलाईन फोन जैसा किया जाना... बेहतर विकल्प नहीं है क्या? यानि कि मोबाइल फोन से यह मुसीबत हो गई है कि आप शौचालय में भी दो घड़ी चैन से बैठकर निवृत्त नहीं हो सकते।
तो जो जि‍सकी जगह है वो उसकी जगह रहे। आदमी अपनी जगह, मशीन की उपयोगि‍ता अपनी जगह। यंत्र से यंत्र की तरह व्‍यवहार कि‍या जाये और इंसान से इंसान की तरह। एक जगह खबर पढ़ी कि‍ अब इंसान यंत्रों से भी काम संबंध स्‍थापि‍त कर पायेगा, क्‍या हालात इतने बदतर हो चुके  हैं? पहले हम धरती के अन्‍य जि‍न्‍दा लोगों से तो प्रेमपूर्ण रहना सीख लें। कभी कभी तो ऐसा प्रतीत होता है कि‍ पत्‍थर युग में आदमी ज्‍यादा संवेदनशील रहा होगा बनि‍स्‍बत आज के आदमी के। उस समय के आदमी ने पत्‍थर से आग नि‍कालने की कोशि‍श की पर आज का आदमी जि‍न्‍दा चीजों को जड़ वस्‍तुओं में बदलने पर तुला है, पॉलीथीन के प्रयोग की ही बात लें। ये ऐसी चीज है जो प्रयोग के बाद जहां भी अपनी अंत अवस्‍था में पहुंचती है खुद तो नष्‍ट नहीं होती, पर जहां ये खत्‍म होने के लि‍ये छोड़ दी जाती है, अपने सम्‍पर्क में आने वाली हर चीज को नष्‍ट भ्रष्‍ट कर देती है। आदमी का व्‍यवहार भी क्‍या ऐसा ही नहीं होता जा रहा है ?
हमें अपने जीवन में मशीनों की भूमि‍का के बारे में एक बार फि‍र सोचना पड़ेगा, क्‍या आपको ऐसा नहीं लगता ???

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

1411 वो खूबसूरत, आकर्षक, चुम्‍बकीय, रोमांचक अहसास का चेहरा खो ना जाये, आओ इसे बचायें...


बाघ बचाओ, मि‍साल बनाओ।
हमारा राष्ट्रीय वन्य जीव जिन्दगी और मौत के संघर्ष में झूल रहा है। एक मोटे अनुमान अनुसार 19वीं सदी में बाघों की आबादी 40,000 थी जो 20वीं सदी और अब तक घटते-घटते 1411 पर पहुंच गई है। इस हिसाब से बुरे आदमी की हवस और भले इंसानों की नजरअंदाजी कितनी तेजी से अमल में आयी है; इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
याद रखिये 5 अरब मानवों को अपने जीवन की एकरसता और ऊब से बचाने के लिए ही नहीं, प्राकृतिक चक्र की संतुलित गति के लिए भी विविध जैव प्रजातियों का संरक्षण अपरिहार्य है। यह वैज्ञानिक रूप से भी पृथ्वीवासियों के लिए आवश्यक है।
यदि अब हमने कुछ ना किया या, इस बात को नजरअंदाज किया तो हमारे राष्ट्रीय चिन्हों के रूप में अन्य जीव ढूंढने होंगे। तो क्यों ना उसी जीव का संरक्षण करें, जिसकी मिसालें इंसान के व्यक्तित्व का हिस्सा हैं।

मेरे विचार से बाघ और सिंह के संरक्षण में हम इस प्रकार से योगदान कर सकते हैं:
  • यदि आपके क्षेत्र के आसपास कहीं बाघ पाया जाता हो तो उनके जीवन के बारे में जाने, नियमित रूप से उनकी प्रगति, विकास का ध्यान रखें।
  • यदि आपके आसपास के वन्य उद्यान/चिड़ियाघर/जू में बाघ हो तो यथासंभव नियमित अन्तराल से उसकी जानकारी लें। अपने मित्रों, परिजनों, बच्चों को बाघ के बारे में विस्तृत रूप से बतायें।
  • यदि आपको बाघ को हानि पहुंचाने वाली किसी भी मानवीय गतिविधि का पता चले तो कानून की मदद करें और बाघ को बचायें।
  • बाघ और ऐसे ही अन्य विलुप्तप्राय जीवों की जिन्दगी बचाने के अन्य उपाय भी सोचें, यथासंभव प्रचार प्रसार करें और जितना बन पड़े अमल में लायें।

बाघों-शेरों के बारे में मेरा अपना अनुभव यह रहा है कि भोपाल तालाब के किनारे स्थित ‘‘वनविहार‘‘ में मैंने अपने जीवन भर में दो चार बार इनके दर्शन किये हैं। यहीं पर मैंने एक दो बार हष्ट-पुष्ट बाघ देखे। एक बार माँ बाघि‍न भी देखी । एक बार दो बढ़ते हुए शावक देखे। सफेद बाघ को देखने का दुर्लभ नजारा भी हुआ। वैसे वनविहार का प्रबंधन ऐसा है कि जीवों को घूमने फिरने विचरने की सुविधा रहती है, इसलिए आपको इनके दर्शन के लिए अपनी किस्मत का सहारा लेना पड़ता है। वैसे इनको भोजन पानी देने के समय और वनविहार कर्मियों से विस्तृत जानकारी लेकर इन दुर्लभ जीवों के दर्शन संभव हैं।
बीच - बीच में भोपाल के अखबारों में बाघ, सिंह और अन्य प्राणियों के वनविहार में आने-जाने की खबरें पढ़ते-सुनते हैं। पर वर्ष 2009 में कई दुखद खबरें ही ज्यादा सुनने को मिलीं।
जैसे बाबा रामदेव ने आयुर्वेदि‍क औषधि‍यों में हड्डि‍यों के प्रयोग की बात कही वैसे ही चीनी दवाओं में जीवों के अंगों का इस्‍तेमाल होता है। बाघ की हडिड्यों का पावडर मनुष्‍य के शरीर में कामोत्‍तेजनवर्धक होने के कारण भी बाघों का बहुतायत में शि‍कार कि‍या गया।
कौन जि‍म्‍मेदार नहीं है- वो अमीर, जि‍नके शो केसों में बाघ की खाल लटकी या तख्‍तों पर बि‍छी होती है, वो साधु सन्‍यासी जो बाघ की खालों को योग-ध्‍यान हेतु आसन बनाते हैं, वो गरीब जो जगह की तलाश में बाघ के ठि‍कानों के आसपास झोपड़ि‍यां बना लेते हैं और वो हम शहरी लोग - जो सलाखों के पीछे जू में इसकी मजबूरी का तमाशा देखते हैं।

मैंने वर्ष 2009 में दिल्ली यात्रा के दौरान राष्ट्रीय प्राणी उद्यान ‘‘जू’’ में में बाघों और सिंह को दयनीय हालत में देखा। ऐसा लगा खुजली खाये कुत्तों से गई बीती हालत में हैं। यही हालत कई प्रकार के दुर्लभ जीवों की थी। कोई भी संस्थान या सरकारें भ्रष्टाचार, मंहगाई और आम आदमी के जीवन को और मुश्किल बनाने में ही सहायक होती हैं। अतः कुछ करना है तो प्रत्येक व्यक्ति यथासार्मथ्य अपने व्यक्तिगत स्तर पर जो भी छोटा या क्षुद्र सा भी बन पड़े वो करें, क्योंकि यही अत्यंत महत्वपूर्ण है।

”रात बितायी सोय के दिवस बितायो खाय, हीरा जनम अमोल था, कौड़ी बदले जाये।“ संतों की उक्तियों में वर्णित, अपने दो कौड़ी के जीवन को ईश्वरीय सौगातों से भरें। विविध जैव प्रजातियों को बचाइये, अपना जीवन समृद्ध कीजिये, पुण्य लाभ लीजिये।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

वो झुकी निगाह


उस झुकी निगाह को, इंकार कैसे करते हम
याद रही है जन्म भर, फिर वो झुकी निगाह

जब्त कर के चाह को, आह भर कर रह गये
मर गये उस लम्हे में, न कभी उठी निगाह

जमाना भर हमदर्द था, दर्द ना वो कभी मिटा
जिसने हमको देखा बोला, कैसी लुटी निगाह?

सिसकियां जीते रहे, हिचकियों में रातें कटीं
आईने से बातें थीं, थी दम घुटी निगाह

जाने कब तुझे खो दिया, दिल अश्कों में डुबो दिया
लख लानतें मेरी नजर पर, कैसे चुकी निगाह

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है


पाना-खोना झूठा, छोड़ के जानी दुनियां
फिर भी कितने ख्वाब संजोना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है

धो धोकर पीता है चरणरज मक्कारों की
जहर भी, और बहुत कुछ पीना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है

चौराहों पर मौतों से कोई फर्क नहीं है
आदमी, कितने आतंकों में जीना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है

गया जमाना - अब मोर नहीं जंगल में नाचते
बोली लगाना हर एक नगीना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है

बीती यादों में जिन्दगी नर्क हुई जाती है
तेरे नाम का जप-सा दिल ये कमीना सीख गया है
आदमी कैसे कैसे जीना सीख गया है

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

द्वैत


देह में ऊपर से नीचे तक
द्वैत है
या,
संतुलन बैठाने की कोशिश।

बुद्धि के दो पक्ष हैं।

आंखें दो हैं,
कि उल्टा और सीधा सब देखें।
दायां और बांयां सब देखें।

बोलों की तालियां बजाने के लिए
दो अधर।

संसार को गतिमान रखती
दो तरफ भुजाएं।
दो कंधे।
ह्रदय के भी दो वाल्व हैं।
दो फेफड़े।
दो जंघाएं, घुटने, पैर।

या,
"मैं एक ही"
कर देता हूँ
अपनी आसानी के लिए
ये बंटवारे।

और डोलता रहता हूं
अनवरत
आती और जाती सांस में
एक से दूसरे बिन्दु की ओर
जितने भी गढ़े हैं दो छोर।

या,
मैं
इन दो छोरों
और मध्य
सबसे परे हूं,
नाकुछ होकर।

और अचानक पैदा हो गया हूं
इस संसार में
जहां नाकुछ होना पाप है।

इसलिए दिखते हैं मुझे
द्वैत।