गुरुवार, 18 दिसंबर 2008

आपका विश्वास, ईश्वर नहीं है

एक आदमी जो ईश्वर में विश्वास करता है ईश्वर को नहीं खोज सकता। ईश्वर एक अज्ञात अस्तित्व है, और इतना अज्ञात कि हम ये भी नहीं कह सकते कि उसका अस्तित्व है। यदि आप वाकई किसी चीज को जानते हैं, वास्तविकता के प्रति खुलापन रखते हैं तो उस पर विश्वास नहीं करते, जानना ही काफी है। यदि आप अज्ञात के प्रति खुले हैं तो उसमें विश्वास जैसा कुछ होना अनावश्यक है। विश्वास, आत्म प्रक्षेपण का एक ही एक रूप होता है, और केवल क्षुद्र मन वाले लोग ही ईश्वर में विश्वास करते हैं। आप अपने हीरो लड़ाकू विमान उड़ाने वालों का विश्वास देखिये, जब वो बम गिरा रहे होते हैं तो कहते हैं कि ईश्वर उनके साथ है। तो आप ईश्वर में विश्वास करते हैं जब लोगों पर बम गिरा रहे होते हैं, लोगों का शोषण कर रहे होते हैं। आप ईश्वर में विश्वास करते हैं और जी-तोड़ कोशिश करते हैं कि कहीं से भी किसी भी तरह से अनाप शनाप पैसा आ जाये। आपने भ्रष्टाचार, लूट खसोट से कोहराम मचा रखा है। आप अपने देश की सेना पर अरबों-खरबों रूपये खर्च करते हैं और फिर आप कहते हैं कि आप में दया, सद्भाव है, दयालुता है, आप अहिंसा के पुजारी हैं। तो जब तक विश्वास है, अज्ञात के लिए कोई स्थान नहीं। वैसे भी आप अज्ञात के बारे में सोच नहीं सकते, क्योंकि अज्ञात तक विचारों की पहुंच नहीं होती। आपका मन अतीत से जन्मा है, वो कल का परिणाम है - क्या ऐसा बासा मन अज्ञात के प्रति खुला हो सकता है। आपका मन, बासेपन का ही पर्याय है - बासापन ही है। यह केवल एक छवि प्रक्षेपित कर सकता है, लेकिन प्रक्षेपण कभी भी यथार्थ वास्तविकता नहीं होता। इसलिए विश्वास करने वालों का ईश्वर वास्तविक ईश्वर नहीं है बल्कि ये उनके अपने मन का प्रक्षेपण है। उनके मन द्वारा स्वान्तःसुखाय गढ़ी गई एक छवि है, रचना है। यहां वास्तविकता यथार्थ को जानना समझना तभी हो सकता है जब मन खुद की गतिविधियों प्रक्रियाओं के बारे में समझ कर, एक अंत समाप्ति पर आ पहुंचे। जब मन पूर्णतः खाली हो जाता है तभी वह अज्ञात को ग्रहण करने योग्य हो पाता है। मन तब तक खाली नहीं हो सकता जब तक वो संबंधों की सामग्री सबंधों के संजाल को नहीं समझता। जब तक वह धन संपत्ति और लोगों से संबंधों की खुद की प्रकृति नहीं समझ लेता और सारे संसार से यथार्थ वास्तविक संबंध नहीं स्थापित कर लेता। जब तक वो संबंधों की संपूर्ण प्रक्रिया, संबंधों में द्वंद्वात्मकता, रिश्तों के पचड़े नहीं समझ लेता मन मुक्त नहीं हो सकता। केवल तब, जब मन पूर्णतः निस्तब्ध शांत पूर्णतया निष्क्रिय निरूद्यम होता है, प्रक्षेपण करना छोड़ देता है, जब वह कुछ भी खोज नहीं रहा होता और बिल्कुल अचल ठहरा होता है तभी वह पूर्ण आंतरिक और कालातीत अस्तित्व में आता है।

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चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

उसकी बात

सबसे खूबसूरत कौन है?
कौन है जिसकी आवाज मीलों दूर तक जाती है
बिना थकावट के

कौन है जिसके आंचल में सिर छुपा
उम्रदराज लोग भी रोते हैं बच्चों की तरह

अकेले बंद कमरे में घबराया सा,
जंगल की घनेपन में,
और आकाश के खुलेपन में,
या पर्वतों की ऊंचाईयों से हतप्रभ
मैं किसकी कल्पना नहीं कर पाता

अजनबियों के चेहरे पर
पहचाना सा क्या होता है
क्या उसे यकीन कहते हैं
जो अजनबी पर किया जाता है

क्या है जो मुझे अधिकार देता है
कि किसी भी राह चलते शख्स से
मैं कह दूं अपना दर्द

नन्हें से पौधे का आकाश की तरफ देखना
दरख्तों का बाहें फैला पुकारना
नदियों का आवारापन
गिरिशिखरों की बादलों से बातचीत

क्या है जो
मैं बार बार कहना चाहता हूं
और बार बार छूट जाता है
क्या है जो हर कोई समझ लेता है बिन कहे
क्या है जिसके लिए कहना सुनना खेल है

क्या है जिस पर बेवजह
सांसों के सुर वारे जा सकते हैं

मेरे सभी अजनबी अहसासों को
मेरी नादानियों की मुआफियां पहुंचें

रविवार, 14 दिसंबर 2008

एक फिल्मी गीत

वो शाम कुछ अजीब थी ये शाम भी अजीब है
वो कल भी पास पास थी वो आज भी करीब है

झुकी हुई निगाह में, कहीं मेरा खयाल था
दबी-दबी हसीं में इक, हसीन सा गुलाल था
मैं सोचता था मेरा नाम गुनगुना रही है वो
मै गाऊं तो लगा मुझे कि मुस्कुरा रही है वो

मेरा खयाल है अभी झुकी हुई निगाह में
खिली हुई हंसी भी है दबी हुई सी चाह में
मैं जानता हूं मेरा नाम गुनगुना रही है वो
यही खयाल है मुझे कि पास आ रही है वो

फिल्म-खामोशी गायक-किशोर

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

जे कृष्णमूर्ति कि सूक्ति का हिन्दी भाषा अंतरण

धर्म, जैसा की हम सामान्य तौर पर जानते हैं या मानते हैं, मतों - मान्यताओं, रीति रिवाजों परंपराओं, अंधविश्वासों, आदर्शों के पूजन की एक श्रंखला है। आपको आपके हिसाब से तय अंतिम सत्य को ले जाने के लिए मार्गदर्शक गुरूओं के आकर्षण। अंतिम सत्य आपका प्रक्षेपण है, जो कि आप चाहते हैं, जो आपको खुश करता है, जो आपको मृत्यु रहित अवस्था की निश्चितता देता है। तो इन सभी में जकड़ा मन एक धर्म को जन्म देता है, मत-सिद्धांतों का धर्म, पुजारियों द्वारा बनाया गया धर्म, अंधविश्वासों और आदर्शों की पूजा। इन सबमें मन जकड़ जाता है, दिमाग जड़ हो जाता है। क्या यही धर्म है? क्या धर्म केवल विश्वासों की बात है, क्या अन्य लोगों के अनुभवों, ज्ञान, निश्चयों का संग्रह धर्म है? या धर्म केवल नैतिकता भलमनसाहत का अनुसरण करना है? आप जानते हैं कि नैतिकता भलमनसाहत, आचरण से तुलनात्मक रूप से सरल है। आचरण में करना आ जाता है ये करें या न करें, चालाकी आ जाती है। क्योंकि आचरण सरल है इसलिए आप आसानी से एक आचरण पद्धति का अनुसरण कर सकते हैं। नैतिकता के पीछे घात लगाये बैठा स्वार्थ अहं पुष्ट होता रहता है, बढ़ता रहता है, खूंखार रूप से दमन करता हुआ, अपना विस्तार करता रहता है। तो क्या यह धर्म है।

आपको ही खोजना होगा कि सत्य क्या है क्योंकि यही बात है जो महत्व की है। आप अमीर हैं या गरीब, आप खुशहाल वैवाहिक जीवन बिता रहें हैं और आपके बच्चे हैं, ये सब बातें अपने अंजाम पर पहुंचती है, जहां हमेशा मृत्यु हैं। तो विश्वास, अपने मत के किसी भी रूप, पूर्वाग्रह रहित होकर आपको सत्य को जानना होगा। आपको खुद अपने लिए ओज और तेज सहित, खुद पर अवलम्बित हो पहल करनी होगी कि सत्य क्या है?, भगवान क्या है?। मत और आपका विश्वास आपको कुछ नहीं देगा, विश्वास केवल भ्रष्ट करता है, जकड़ता है, अंधेरे में ले जाता है। खुद ही ओज और तेज सहित उठ पहल करने पर ही आत्मनिर्भर, मुक्त हुआ जा सकता है।

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गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

ये जनम

सब का सब दोहराव है
सारा जन्म - सारे जन्म

जरूरी नहीं है
रोज पहरों के लिए
स्कूल जाना 12 - 15 साल तक
पर सभी जा रहे हैं आज तक

जरूरी नहीं है
कि एक अजनबी आदमी, अजनबी औरत से शादी करें
पर अरबों लोग कर रहे हैं खुशी खुशी

जरूरी नहीं कि
बच्चे भी पैदा हों
पर हर मिनट हो रहे हैं लाखों बच्चे

जरूरी नहीं है कि
बरसों तक नौकरी की जाये
8-10-12 घंटे एक आदमी
किसी दूसरे आदमी की चाकरी करे
काम हो या, न हो
किसी ठिये पर टिके घंटों तक
ऊंघता हुआ
टाईम पास करता हुआ
पर दुनियां के कई अरब आदमी ऐसा कर रहे हैं

कितनी बेहूदा और फिजूल सी बातें
कितनी तन्मयता से
जन्मों जन्मों की जाती हैं
मशीन की तरह

और कितनी जरूरी बातें
कि पड़ोसी का हाल चाल पूछ लें
शहर के तालाब में आये
नये पक्षियों की चाल ढाल की सूझ लें
बहुत दिन से गिटार नहीं बजाया, बजा लें
बहुत दिन हुए कोई गीत नहीं गुनगुनाया, गुनगुना लें
बहुत दिन हुए चुपचाप नहीं बैठे
धूप की गरमाहट को महसूस करें लेटे लेटे
मौसी से मिलने नहीं गये कितने बरस से
दोस्त को मिलने को, गये हैं तरस से

बस
संडे के संडे जीते हैं थोड़ा सा
हफ्ते भर का पारा नीचे उतरता है थोड़ा सा
और एक बरस और एक जिन्दगी में
क्या आपको बस रविवार
या छुट्टियों को ही जीना है?
बाकी छः दिन किस मजबूरी में
किसकी जी हुजूरी में गुजारने हैं
क्या इस तरह ही लम्हें संवारने हैं

क्या कामचलाऊ रोटी कपड़े मकान में काम नहीं चल सकता
क्या सांसों का उबलना, सुकून में नहीं ढल सकता
क्या ब्लडप्रेशर, डायबिटीज, दिल की बीमारियों का फैशन है
क्या ये जन्म टेंशन, कैंसर, एड्स का सैशन है
क्या नोट ही जिन्दगी हैं?
क्या स्वार्थ ही बन्दगी है?
क्या नोट बिना आपके व्यक्तित्व में कुछ भी नहीं बचा
क्या नोट की चैंधियाहट से रोम-रोम है रचा पचा
क्या हालात इतने बुरे हैं कि सब तरफ प्रतियोगी-छुरे हैं
क्या दौड़ से हट जाना हार है
क्या दौड़ ही संसार है

......निरंतर... शीघ्र ही

बुधवार, 10 दिसंबर 2008

पूरनचंद प्यारेलाल का एक गीत

रब बंदे दी जात इक्को
ज्यों कपड़े दी जात है रूं
कपड़े विच ज्यों रूं है लुकया
यूं बंदे विच तू
आपे बोलें आप बुलावे
आप करे हूँ हूँ

तू माने या न माने दिलदारा
असां ते तेनू रब मनया
दस होर केडा रब दा दवारा
असां ते तेनू रब मनया

अपने मन की राख उड़ाई
तब ये इश्क की मंजिल पाई
मेरी साँसों का बोले इकतारा

तुझ बिन जीना भी क्या जीना
तेरी चैखट मेरा मदीना
कहीं और न सजदा गवारा

हँसदे हँसदे हर गम सहना
राजी तेरी रजा में रहना
तूने मुझको सिखाया ये यारा

अर्थात् परमात्मा ओर आत्मा की एक ही जात है। जैसे कपड़े में रूई छुपी है वैसे ही आत्मा में परमात्मां। वो आप ही कहता है आप ही सुनता है आप ही होने की हामी भी भरता है।
तू माने या न माने हमने तुझे रब/ईश्वर मान लिया है तू ही बता और अब कौन से द्वार पर जायें।
अपने मन को राख की तरह बना उड़ा दिया है तब हमने इश्क की यह मंजिल पाई है मेरे सांसों का इकतारा तेरी ही धुन निकालता है।
हंसते हंसते खुशी गम सहना, तेरी मर्जी की मुताबिक रहना ये तूने ही मुझे सिखा दिया है।

मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

महामना जे. कृष्णमूर्ति जी के आज के उद्धरण का अनुवाद

एक धार्मिक व्यक्ति वो व्यक्ति नहीं जो भगवान को ढूंढ रहा है। धार्मिक आदमी समाज के रूपांतरण से संबद्ध है, जो कि वह स्वयं है। धार्मिक आदमी वो व्यक्ति नहीं जो असंख्य रीति रिवाजों - परंपराओं को मानता/करता है। अतीत की संस्कृति, मुर्दा चीजों में जिंदा रहता है। धार्मिक आदमी वो व्यक्ति नहीं है जो निर्बाध रूप से बिना किसी अंत के गीता या बाईबिल की व्याख्या में लगा हुआ है, या निर्बाध रूप से जप कर रहा है, सन्यास धारण कर रखा है - ये सारे तो वो व्यक्ति हैं जो तथ्य से पलायन कर रहे हैं, भाग रहे हैं। धार्मिक आदमी का संबंध कुल जमा, संपूर्ण रूप से समाज को जो कि वह स्वयं ही है, को समझने वाले व्यक्ति से है। वह समाज से अलग नहीं है। खुद के पूरी तरह, संपूर्ण रूप से रूपांतरण अर्थात् लोभ-अभिलाषाओं, ईष्र्या, महत्वाकांक्षाओं के अवसान द्वारा आमूल-रूपांतरण और इसलिए वह परिस्थितियों पर निर्भर नहीं, यद्यपि वह स्वयं परिस्थितियों का परिणाम है - अर्थात् जो भोजन वह खाता है, जो किताबें वह पढ़ता है, जो फिल्में वह देखने जाता है, जिन धार्मिक प्रपंचों, विश्वासों, रिवाजों और इस तरह के सभी गोरखधंधों में वह लगा है। वह जिम्मेदार है, और क्योंकि वह जिम्मेदार है इसलिए धार्मिक व्यक्ति स्वयं को अनिवार्यतः समझता है, कि वो समाज का उत्पाद है समाज की पैदाईश है जिस समाज को उसने स्वयं बनाया है।इसलिए अगर यथार्थ को खोजना है तो उसे यहीं से शुरू करना होगा। किसी मंदिर में नहीं, किसी छवि से बंधकर नहीं चाहे वो छवि हाथों से गढ़ी हो या दिमाग से। अन्यथा कैसे वह कुछ खोज सकता है जो संूपर्णतः नया है, यथार्थतः एक नयी अवस्था है.
क्या हम खुद में धार्मिक मन की खोज कर सकते हैं। एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में वास्तव में वैज्ञानिक होता है। वह अपनी राष्ट्रीयता, अपने भयों डर, अपनी उपलब्धियों से गर्वोन्नत, महत्वाकांक्षाओं और स्थानिक जरूरतों के कारण वैज्ञानिक नहीं होता। प्रयोगशाला में वह केवल खोज कर रहा होता है। पर प्रयोगशाला के बाहर वह एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही होता है अपनी पूर्वअवधारणाओं, महत्वाकांक्षाओं, राष्ट्रीयता, घमंड, ईष्र्याओं और इसी तरह की अन्य बातों सहित। इस तरह के मन की पहुंच ‘धार्मिक मन’ तक कभी नहीं होती। धार्मिक मन किसी प्रभुत्व केन्द्र से संचालित नहीं होता, चाहे उसने पारंपरिक रूप से ज्ञान संचित कर रखा हो, या वह अनुभव हो (जो कि सच में परंपराओं की निरंतरता, शर्तों की निरंतरता ही है।) पंरपरा यानि शर्त, आदत।
धार्मिक सोच, समय के नियमों के मुताबिक नहीं होती, त्वरित परिणाम, त्वरित दुरूस्ती सुधराव सुधार समाज के ढर्रों के भीतर। धार्मिक मन रीति रिवाजी मन नहीं होता वह किसी चर्च-मंदिर-मस्जिद-गं्रथ, किसी समूह, किसी सोच के ढर्रे का अनुगमन नहीं करता।धार्मिक मन वह मन है जो अज्ञात में प्रवेश करता है और आप अज्ञात में नहीं जा सकते, छलांग लगा कर भी नहीं। आप पूरी तरह हिसाब लगाकर बड़ी सावधानीपूर्वक अज्ञात में प्रवेश नहीं कर सकते। धार्मिक मन ही वास्तव में क्रांतिकारी मन होता है, और क्रांतिकारी मन ‘जो है’ उसकी प्रतिक्रिया नहीं होता। धार्मिक मन वास्तव में विस्फोटक ही है, सृजन है। और यहां शब्द ‘सृजन’ उस सृजन की तरह न लें जिस तरह कविता, सजावट, भवन या वास्तुशिल्प, संगीत, काव्य या इस तरह की चीजें। ये सृजन की एक अवस्था में ही हैं।

रविवार, 7 दिसंबर 2008

क्या फर्क है?

क्या फर्क है?
कि एक - सिगरेट न देने पर कोई किसी को छुरा मार दे
और दूसरा -
पानी, तेल, जमीन,
धर्म, सरकार, या किसी भी हवस में
बम धमाके करे - हजारों मरें
आतंक तो है न

क्या फर्क है?
कि कोई चपरासी 10 रू रिश्वत की मांग करे
या कोई मंत्री करोड़ों का टेंडर अपनों के नाम करे
भ्रष्टाचार तो है न

क्या फर्क है?
किसी भी नेता में -
धार्मिक-अधार्मिक, राजनीतिक-आतंकी,
सामाजिक-असामाजिक।
आदमी को मोहरा तो समझते हैं न

जरूरत है सभी जगह
राजनीतिक सामाजिक धार्मिक या कोई भी
कोई भी सांचा हो - तोड़ा जाये
खांचों में फिट होने के लिए नहीं है आदमी