Tuesday 28 May 2013

ज़िंदगी का कोई सिर पैर नहीं है..

जब लिखने का मन होता है,फुर्सत नहीं होती. जब फुर्सत होती है, सूझता नहीं कि क्या लिखें? कुछ बेहतर लिखने के लिए समझ और फुर्सत का संयोग होना आवश्यक है.
एक थे आशी जी. जब कोई व्यक्ति 'है' होता है तो उसके बारे में लिखने में बड़ी झंझटें होती हैं, जब कोई आम व्यक्ति 'थे' हो जाता है,तो उसके बारे में बेधड़क लिखा जा सकता है. खास लोग-- मरने के बाद भी अपनी आपत्तियॉं बनाये रखते हैं. 


नहीं, अभी सोचना नहीं है
किसी दूजे इंसान के बारे मे
नहीं, अभी सोचना नहीं है
किसी कुदरत के बारे में
ना ही सोचना हैा
किसी खुदा के बारे में

हालांकि कुछ भी तय नही है
फिर भी,
नहीं, अभी फुर्सत नहीं हैं
कल हो ना हो
कल का ख्याल है
क्या पता कल हो, ना हो
आज सा, पहचाना सा
रोटी कपड़ा मकान दुकान धंधा पानी
इनकी निरंतरता
क्यों इतनी जरूरी लगती है
कि पिछले छत्तीस बरस से
मैं इन्हीं के इंतजाम में खत्म ​हूं
असल में

मैं पांच अरब दुनियांवालों से
अलग थोड़े ही ना हूं

किसी को क्या सूझता है
इसका पता
इसी बात से चल जाता है
कि वो अक्सर क्या करता है...
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कई तरह की इन्द्रियां होने के बावजूद हम देखने, सुनने, कहने, सोचने, समझने सब चीजों में अनुमान ही लगा पाते हैं... 

रिश्तों को ही लीजिए जिस मां बाप के साथ मैं बरसों रहता हूं, उनके बारे में भी बहुत कुछ अनुमान ही होता है। यदि आप उनके बारे में बहुत कुछ पक्का कह सकते हैं.. तो ये सब वो बातें होती हैं जो उनकी आदते हैं.. जो आपके साथ के दौरान जाहिर हुईं, ना कि वो जो किन्हीं और तरह की परिस्थितियों में बदल जाएंगी। ऐसा ही इंसान के सामाजिक रिश्तों के बारे में भी है। ऐसा ही हमारे जीवन में आने वाले नये और पुराने लोगों के बारे में है। हम टटोलते— टटोलते हुए चलते हैं... सुनने, सूंघने, छूने और रोजमर्रा के घने काले अंधेरे में आंखे फैला कर देखने की कोशिश करते हैं.. यहां तक कि हम अतीत के अनुभवों को भविष्य में प्रक्षेपित करते हुए अपने निजी तकिया कलाम या, मत भी गढ़ लेते हैं. उन्हें अपनी आगामी जिंदगी के लिए द्वार पर बैठा देते हैं, कि अब कोई.. इस टाईप का आये तो देख लेना. ये जवाब देकर चलता करना या, ये कहकर इंतजार करने को बोलना.. या ये कह के वापिस बुलाना.. बोलना मैं पक्का मिलूंगा।

हम आंखों से देखते हुए भी वह नहीं देखते जो हकीकत है, कानों से वो नहीं सुनते जो हकीकत है, मन से वह नहीं महसूस करते जो हकीकत है, हाथों से वह नहीं छू पाते जो हकीकत है, पैरों से वहां तक नहीं पहुंच पाते जो हकीकत है.. एक अनजानी सी दशा में ही डोलते रहते हैं...

मैं आधी रात को सरकारी कुर्सी पर बैठा हूं। चारों तरफ से मच्छरों का धावा है। पैरों से चलना फिरना है सो ढंक नहीं सकते, हाथों से लिखना है इन्हें भी ओढ़ाया नहीं जा सकता.. आल आउट जैसे उपाय जहरीले हैं.. इनके धुंए से कैंसर हो सकता है। मच्छर भगाने वाली क्वाइल से अस्थमा होता है.. आडोमास से त्वचा संबंधी रोग..मच्छरदारनी के अंदर लेपटॉप लेकर बैठो तो ... लेपटॉप पर कुछ टाईप करना...मजा नहीं आता। आपको लिखना भी है और समांतरत: मच्छरों से भी निपटना है। कुछ मच्छर मारे जायेंगे.. कुछ कुछ खून पियेंगे..कुछ उन विचारों को खा जायेंगे जिनका आप रातभर इंतजार करते रहे।

हम अपनी मजबूरियों से डरते हैं, इसलिए नफरत करते हैं.. उनसे उबर नहीं पाते। मजबूरियां मतलब वो छोटे छोटे सुख सुविधाएं 'जिनका होना ही' हमें जिंदगी लगता है.. इस सुरक्षित संरक्षित रहने की कोशिश में ही हम नर्क गढ़ लेते हैं. नहीं तो औसत 65 साल की उम्र मिले तो क्या आप रोज़ाना आठ दस घंटे कोई फालतू सी नौकरी करेंगे? 24 घंटों का बंधा—बंधाया रूटीन बनायेंगे?

ज़िंदगी का ही कोई सिर पैर नहीं है..फिर शुरू कहां से मानना और खत्म कहां करना...?