इस मरने वाले शरीर के लिए संस्कृत में शब्द है 'देह'। इसे देह इसलिए कहा जाता है क्योंकि आखिरकार आखिरी सफर में इसे दाह संस्कार द्वारा अग्नि को सौंपा समर्पित किया जाता है.. दाह संस्कार किया जाता है। जिसे दहन किया जाता है वह देह ताकि इससे मुक्त आत्मा अब परमात्मा को प्राप्त हो।
कुछ हिन्दू, अपनी मर्जी
से जीवन जीने का एक तरीका चुनते हैं जिसे सन्यास कहा जाता है। इसके तहत भले—चंगे रहते, जीते जी वे
अपना दाह संस्कार स्वयं ही संपन्न कर लेते हैं. इस तरह वह अग्नि से अपना नाता तोड़ते
हैं।
एक सन्यासी का मतलब ही है, आग से नाता तोड़ चुका व्यक्ति। न तो भोजन के लिए आग का इस्तेमाल करेगा, जलायेगा न अपने देह में आग को पलने बढ़ने का मौका देगा न जीवन में भौतिकता की आग— भोग.ऐश्वर्य को हवा देगा। बल्कि बस खाक—राख हो रहेगा, धरती माता को समर्पित हो रहेगा, जमीन का आदमी हो रहेगा, जमीन ही हो रहेगा।
जागृत परमतत्व को पहुंची आत्माएं, जिन्होंने इस नश्वर देह के होते हुए ईश्वर का साक्षात्कार किया वो भी धरती को अर्पित की जाती हैं। जो समाधि को प्राप्त हुए, उनकी समाधि बनाई जाती है।
भगवान शिव आराधकों शैवों की समाधि पर शिवलिंग स्थापित किया जाता है इसे 'अधिष्ठानम' कहते हैं। विष्णु भक्त वैष्णवों की समाधि पर तुलसी का पौधा—बिरवा रोपा जाता है जिसे ''वृन्दावनम्'' कहते हैं। अधिष्ठानम और वृन्दावनम् दोनों को जीवित गुरू मानकर लोग उनकी पूजा—आराधना—प्रार्थना करते हैं। उनसे मार्गदर्शन, आशीष लेते हैं ताकि वो भी इस नश्वर मरणधर्मा शरीर के साथ ही न सम्पन्न हो जायें, वो भी अमरत्व का स्वाद चख सकें।
श्री रमण महर्षि की समाधि अधिष्ठानम है। वहीं श्री राघवेन्द्र स्वामी की समाधि बृन्दावनम है। अधिष्ठानम में आत्मा अपने सृजनकर्ता—सृजक के साथ एकाकार हो जाती है। जबकि बृन्दावनम में आत्मा सृष्टिकर्ता की सृष्टि से ही एकाकार हो जाती है। हालांकि सनातन धर्म में सृजक—सृष्टा और सृष्टि भिन्न नहीं विचारे जाते, अद्वैत कहे जाते हैं।
The Sanskrit word for this mortal body is “Deha” and it is called so because at the end of its journey, it is submitted to fire by a process/Sanskara called “Dahana” to enable attainment of ParamAtma for the departed soul.
Some Hindu, may have chosen for themselves a path of Sanyasa(monkhood) wherein they would have conducted their own funeral rites while alive, and hence broken their relationship with fire/agni.
A Sanyasa is by himself, forbidden to use fire to cook food (or) thrive (or) possess any wealth in a material form.
The Sanyasa are not submitted to Fire at the end of their mortal journey, but are surrendered to Earth.
Some enlightened souls, who have attained to God realisation in their mortal lifetime are also surrendered to Earth, and on their Samadhi(tomb) if installed a “Shiva Lingam” it is called as “ADHISTANAM” & if installed a Tulasi/Basil plant is to be called as “BRINDAVANAM”.
The ADHISTANAM is a Shaivite tradition while the BRINDAVANAM is more a VaiShnava tradition.
The beings of the ADHISTANAM & BRINDAVANAM are both considered as living masters and people offer prayers, seek guidance & blessings from these souls who have now transformed from being “Finite to Infinite”
Ex:ADHISTANAM> Sri Ramana Maharshi & BRINDAVANAM>Sri Raghavendra Swamy.
In an ADHISTANAM the soul is identified as being one with the CREATOR, while in the BRINDAVANAM the soul is identified as one with the CREATION.
In Sanatana Dharma, the Creator & Creation are considered not separate & aDwaita.