शनिवार, 9 जनवरी 2016

बस यूं ही

वैसी ही नहीं, जैसी कोई चाहे
आग कई तरह की होती है
वैसी भी... जैसी कोई ना चाहे

सब चाहते हैं
दीपक सोने का हो
बाती, अभी—अभी उतरे कपास के फाहे की हो
श्यामा गाय से पाया- पिघला कुनकुना घी हो
और किसी तीर्थ की पवित्र अग्नि से
सुगंधित दिया रोशन हुआ हो

पर सबके
इतने सारे इंतजाम नहीं हो पाते
इ​सलिए
आग कई तरह की होती है
वैसी भी... जैसी कोई ना चाहे

मिट्टी के तेल से गंधाती कुप्पी
साईकिल की ट्यूब की नोजल में सजी
गुदड़ियों से निकली चिंदियों की बाती
गंगू तेली की बीड़ी से उपजी आग
दिये का ऐसा इंतजाम
रौशनी कम देता है
काला गंधाता धुंआ ज्यादा
धुंआ—रामायण की चौपाईयों का शोर
धुंआ—शोर में तुलसी कबीर के रटे दोहे गाने की होड़
धुआं—अमावस की रात में जप
धुंआ—बर्फ बारिश आग में तप
धुआं—प्रोफेसरों के तर्क
धुआं—बुद्धिजीवियों का जुबानी तेजाबी अर्क
धुआं—विज्ञानसम्मत सुबूत
धुंआ—बरसों वही कथन..रगड़ रगड़ मजबूत


कभी तो आपका भी
जाना हुआ होगा शमशान
वहां की आग सबसे महान
ये आग सदा साथ रहती है
आपकी पैदाइश से
किसी के मरने तक

क्योंकि हम
मौत से तो हमेशा बेखबर होते ही हैं
हमें जीवन का होश भी नहीं होता
कब फूल से पैदा हुए
कब कोंपलों पत्तियां
​डाली शाखों में बदलीं
कब हम फूले फले
कब पतझड़ आया
कब सूखी पत्तियों से उड़ चले

तो मौत की याद की आग
सीने में सदा सुलगाये रहो
वो सब जो देह है
कभी नहीं था
वो सब जो देह है
कभी नहीं होगा

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इक ना इक शमां, अंधेरों में जलाये रहिये
सुबह होने को है, माहौल बनाये रहिये
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