सोमवार, 31 अक्टूबर 2016

एक दिया

जब से एंड्राइड स्मार्टफोन लिया है, लिखने की आदत छूट सी गई. केवल फेसबुक. फेसबुक क्षणिक सुख है माया है. सारे महत्वपूर्ण सुख क्षणिक होते हैं. क्या आपने लंबे चलने वाले सुख देखे हैं? सुख भी यदि लंबे चलें तो बोरियत और दु:ख में तब्दील हो जाते हैं.
दुख या तो भूतकाल होता है या भविष्यकाल. जो वर्तमान है वो ना तो दुख होता है ना सुख. लेकिन जब हम जो अभी सामने है, उसका सामना नहीं कर पाते तो बात सुखद या दुखद में रंग जाती है. जब हम जो अभी सामने ही है उसे टालकर अतीत में धक्का मारकर गिरा देते हैं या ख्यालों ख्वाबों की पतंग के कंधे पर बैठा उसे भविष्य में प्रक्षेपित करते हैं तो बात विकृत हो जाती है...कुरूप भ्रष्ट हो जाती है.
सोशलसाईट्स पर कहीं भी जाओ  आस्तिक नास्तिक मिलेंगे, हिंदू मुसलमान मिलेंगे, राष्ट्रवादी और देशद्रोही मिलेंगे, पक्ष या विपक्ष वाले मिलेंगे... अतियों पर खड़े लोग मिलेंगे या अतियों की ओर सरकते हुए.. बीच में खड़े होकर कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाटी हाथ... इस मुद्रा में कोई नहीं दिखता... दिखता भी है बस लिखता लिखता ही दिखता... नाना पाटेकर बोला मिट्टी की, बाती की, तेल की, और आखिरकार लौ की, आग की कौन जाति होती है?
ज्ञानीजनों की संगत मुश्किल है क्योंकि ज्ञान के साथ अहं फ्री मिलता है. निपट ज्ञानी नहीं मिलेगा उसके साथ कुछ ना कुछ श्लेष्मा अलंकृत होता है जो उसे ज्ञानी नहीं रहने देता-
गुजरात में नया साल दिवाली से शुरू होता है... तो देखते हैं रोज नये दिये सी एक नई ब्लॉग पोस्ट

रविवार, 24 जनवरी 2016

फेसबुक पर चिपको आंदोलन


इतना तो तय है कि अगर आदमी को काम हो, उसे फालतू चीजों के लिए फुर्सत ही ना हो तो आदमी फेसबुक लाॅगइन नहीं करेगा. एक आदमी जो रोटी-कपड़ा-मकान-दुकान के चक्कर में है वह भी फेसबुक पर नहीं होता. नियमित रूप से खाने-पीने के प्रति लापरवाह, खाते-पीते ऐसे लोग जिनके पास बिजली, कम्प्यूटर और इंटरनेट पर किये गये खर्च का हिसाब रखने के कारण नही हैं.. वो सोशन नेटवर्किंग साईट्स (सो.ने.सा.) पर सहज होते हैं।

कम्प्यूटर इंटरनेट की सुविधा होने के बावजूद फालतू लोग हैं, कोई काम नहीं... तो बस बैठे हैं. दूसरों पर कमेंट करना. सुनी-सुनाई, पढ़ी-पढ़ाई बातों से ही बात का बतंगढ़ बनाना. गलतफहमी होना कि आस-पास पास-पड़ोस में यार-दोस्त नहीं मिल सके तो यहां मिल जायेंगे. किसी ना किसी तरह के नेटवर्क में रहने की भी एक आदिम तलब भी...एक वजह है. भड़ास निकालना. अफवाह फैलाना. चुगलियां करना. व्यर्थ की बतौलेबाजी. टांग खींचना और अजनबी लोगों की टांग खींचना. उपदेश देना. 3 लोग महज इसलिए जबरन फेसबुक पर होते हैं कि उनके अन्य 7 साथी यहां पर हैं. जो बातें कर नहीं पा रहे हैं, करने में सक्षम नहीं है..वो कही जाती हैं तो ऐसी बातों का भी यह एक मंच है. गालियों का भी.

कम्प्यूटरनेट से पहले कुछ लोग हुआ करते थे जिनमें लिखास का जीन्स सक्रिय होता है... उनके लिखे को उन्हीं के समाज-जाति वालों द्वारा छपवाई स्मारिकाओं में भी जगह नहीं मिल पाती थी.. तो उनके लिए भी यह एक उपयुक्त मंच है. लोग फेसबुक पर छपास भी निकालते हैं. किसी मासिक पत्रिका या समाचार पत्र में कोई लेख या कविता भेजनी है तो उसे पहले फेसबुक पर डाल दो... प्राथमिक मूल्यांकन हो जाता है. जिन्हें अच्छा लिखने की गलतफहमी है वह अपने बारे में गाने गा सकता है, जो बुरा लिखते हैं वो दूसरों के अच्छे के आलोचक हो सकते हैं... कि फलां फलां चीज की कहां कहां कमी है। किस किस गुड़ में कहां कहां कुछ गोबर का टच देते तो क्या ही फ्रूंटपंच बनता. पहले अच्छे-खासे लेखकों को स्थापित होने में एक उम्र लग जाती थी, अक्सर तो उसकी पहली दूसरी बरसी पर ही पता चलता था कि वह कितना महान था... आज के लेखक पैदा बाद में होते हैं... सारी सोनोग्राफिक कहानी पहले छप चुकी होती है. लाखों की तादाद में महिला अनुयायी... फोलोवर्स होते हैं। सो.ने.सा. ने विभिन्न तरह की गुटबाजी को काफी सहयोग दिया है...


फिर दुनियां भर की खबरे सुनने को मिलती हैं, उन पर आदमी चिंतित होता है.. अब कुछ करेगा तो मेहनत, ताकत, हिम्मत, दिमाग, पैसा जाने क्या क्या खर्च होगा... फेसबुक पर बैठे-ठाले बतौलेबाजी करो, चिंताओं के चिंतन से सारे नेटवर्क को धन्य करो। खुद चिता पर बैठे हो दूसरों को भी जलाओ, खुद का पक रहा है, दूजों का दिमाग भी दही करो।

फेसबुक टाईमलाईन लोगों के बारे में मोटा मोटा हिसाब तो दे ही देती है। ज़रा भी सच्चाई हो तो किसी की अपलोड या शेयर की तस्वीरें और पठन सामग्री बता देती है कि कौन, किस उम्र में, कैसा और फिलवक्त इनका क्या मिज़ाज है, बावजूद इसके कि यह मुखौटालोक है..धोखा हो सकता है।

आदमी ताउम्र मनोरंजन चाहता है. जैसे देह.दिमाग.मन हैं वैसै वैसे मनोरंजन के जरिये भी... यहां तक की ज्ञान.ध्यान को भी मनोरंजन बना लिया जाता है-

शनिवार, 9 जनवरी 2016

बस यूं ही

वैसी ही नहीं, जैसी कोई चाहे
आग कई तरह की होती है
वैसी भी... जैसी कोई ना चाहे

सब चाहते हैं
दीपक सोने का हो
बाती, अभी—अभी उतरे कपास के फाहे की हो
श्यामा गाय से पाया- पिघला कुनकुना घी हो
और किसी तीर्थ की पवित्र अग्नि से
सुगंधित दिया रोशन हुआ हो

पर सबके
इतने सारे इंतजाम नहीं हो पाते
इ​सलिए
आग कई तरह की होती है
वैसी भी... जैसी कोई ना चाहे

मिट्टी के तेल से गंधाती कुप्पी
साईकिल की ट्यूब की नोजल में सजी
गुदड़ियों से निकली चिंदियों की बाती
गंगू तेली की बीड़ी से उपजी आग
दिये का ऐसा इंतजाम
रौशनी कम देता है
काला गंधाता धुंआ ज्यादा
धुंआ—रामायण की चौपाईयों का शोर
धुंआ—शोर में तुलसी कबीर के रटे दोहे गाने की होड़
धुआं—अमावस की रात में जप
धुंआ—बर्फ बारिश आग में तप
धुआं—प्रोफेसरों के तर्क
धुआं—बुद्धिजीवियों का जुबानी तेजाबी अर्क
धुआं—विज्ञानसम्मत सुबूत
धुंआ—बरसों वही कथन..रगड़ रगड़ मजबूत


कभी तो आपका भी
जाना हुआ होगा शमशान
वहां की आग सबसे महान
ये आग सदा साथ रहती है
आपकी पैदाइश से
किसी के मरने तक

क्योंकि हम
मौत से तो हमेशा बेखबर होते ही हैं
हमें जीवन का होश भी नहीं होता
कब फूल से पैदा हुए
कब कोंपलों पत्तियां
​डाली शाखों में बदलीं
कब हम फूले फले
कब पतझड़ आया
कब सूखी पत्तियों से उड़ चले

तो मौत की याद की आग
सीने में सदा सुलगाये रहो
वो सब जो देह है
कभी नहीं था
वो सब जो देह है
कभी नहीं होगा

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इक ना इक शमां, अंधेरों में जलाये रहिये
सुबह होने को है, माहौल बनाये रहिये
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गुरुवार, 7 जनवरी 2016

दिनों महीनों सालों तक


दिनों महीनों सालों तक
बस वही दिन. बस वही रात
दिनों महीनों सालों तक
रोटी.रोजी.बोटी की बात

दिनों महीनों सालों तक
तू, मैं, तू—तू मैं—मैं
दिनों महीनों सालों तक
ओह!, अच्छा, हैं...?

दिनों महीनों सालों तक
गंवाई यूं ही सांसें
दिनों महीनों सालों तक
महसूसी दिल में फांसें


दिनों महीनों सालों तक
मशीनों में पालन पोषण
दिनों महीनों सालों तक
कौटिल्यों ने किया शोषण

*चाणक्य को कौटिल्य भी कहा जाता है, उनकी कुटिल व्यवहार परंपरा के कारण

दिनों महीनों सालों तक
मजबूरियों का साथ
दिनों महीनों सालों तक
खुदगर्जियों की लात

दिनों महीनों सालों तक
हकीकत से बचना,
दिनों महीनों सालों तक
कोई कुनकुना सपना

दिनों महीनों सालों तक
कृष्ण का कहा धर्म
दिनों महीनों सालों तक
कोशिश,श्रम और कर्म

दिनों महीनों सालों तक
असफलताएं, कुंठाएं
दिनों महीनों सालों तक
मौत की याद, हाय! हाय!

दिनों महीनों सालों तक
भेड़ों की भीड़ में भेड़ रहे
दिनों महीनों सालों तक
खरपतवार, हरा ढेर रहे

दिनों महीनों सालों तक
किसी जीवन की तलाश रही
दिनों महीनों सालों तक
मौत ही सदा पास रही

दिनों महीनों सालों तक
बस निरर्थकता को महसूसा
दिनों महीनों सालों तक
इच्छाओं ने सोखा, चूसा

दिनों महीनों सालों तक
जलन, कुढ़न और बदले
दिनों महीनों सालों तक
रहे वही, नहीं बदले