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उम्र के फासलों के धोखे में रहना
ख्वाबों—खयालों के झरोखों में रहना
दानापन नहीं है
जिस्म की इमारत बनते—बनते ही
खंडहर भी होने लगती है
तो छत खुली रखो
अक्सर टहलो
और जब तक इमारत राजी हो
खुलापन संजोओ
फिर मैदानों की ओर लौट चलो.
वो लम्हा खूबसूरत है जहां
किसी भी दिन के शिखर पर
एक नजर में ही
सारे उतार—चढ़ाव दिखते हैं
जहां से दिखता है कि
उम्र के उतार—चढ़ावों की ओट में
झूठ के सिवा कुछ नहीं है।
बचपन.जवानी.बुढ़ापा नादानी
सब एक साथ, सांसों में
आता जाता है... हर पल
दाने लोग
उसी पल को
जीने की बात करते हैं.
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