मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

.... नहीं चाहते हो.


ज़माने भर से दिल्लगी और हमसे बेरूखी क्या है,
यूं तो तुम कहते हो, कि हमें आजमाना नहीं चाहते हो.

अपने किस काम में लाओगे, बता दो मुझे ऐ दोस्त
ये माना कि तुम मेरी दोस्ती, गंवाना नहीं चाहते हो.

यूं जो, ढली शाम, गली से बचते हुए तुम निकले हो
क्या कयामत तलाश है कि, घर जाना नहीं चाहते हो.

ये जो अहसान किया करते हो दीवाने को शैदाई बुला
ये कैसी अदा, हारे हुए को हराना नहीं चाहते हो.

यूं कहां खो गये? क्या हो गये? कि खबर ही नहीं
तुम्हारी नज़र कहती थी, रोना-रूलाना नहीं चाहते हो.

तेरी याद का इक लम्‍हा -रश्‍मि शर्मा


तेरी याद का इक लम्‍हा
मुट़ठी में बंद जुगनू जैसा है
काली अंधेरी रात में
दि‍प-दि‍प कर जलता है
बांधना चाहूं तो
कहीं दम तोड़ न दे, डर लगता है

तेरी याद का इक लम्‍हा
मुझमें पीपल की तरह उगता है
खाद-पानी की नहीं दरकार
अंधेरे, सीले से कोने में जन्‍मता है
और अपनी उम्र से पहले ही
कोई मारता है, कभी खुद मरता है

तेरी याद का इक लम्‍हा
मन में पखेरू सा कुलाचें भरता है
आकाश में जब अंदेशों के
घि‍रते हैं काले मेघ
भीगी चि‍रैया सी डरता है, और
यर्थाथ की कोटर में जा दुबकता है.....

..................... रश्‍मि शर्मा




गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

जरा सी जिंदगी,किस किस तरह जीते

बड़े दिनों बाद... पागलपन आया याद



इक जरा सी जिंदगी, किस किस तरह जीते
बस एक ही क़तरा था, किस—किस तरह पीते.

सूरज आता, सताता कि कुछ कर
रात कहती, जिओ जैसे हों सुभीते

जो गये, बस खो गये, अब ढूंढे कैसे?
ढूंढो... जब त​क ये जिंदगी ना बीते.

ज़िंदगी ने लिया ही लिया, दिया क्या ?
ख्वाहिशें निकली हीं थी, लगे पलीते.