आज
पुराने ओमपुरी के चेहरे से भी ज्यादा
कुरूप है
कल की
कोई कल्पना नहीं है।
कल की आशंकाएं हैं।
क्योंकि पंख ना हों,
पंखों में जान ना हो,
तो गिरता है आदमी।
कल के डर से
मेरे पंख गिर गये हैं
इसलिए
मेरा आज
पुराने ओमपुरी के चेहरे से भी ज्यादा
कुरूप है
क्या मुझे किसी भी कल के लिए
अमर पंख चाहिए ?
या
मुझे याद करना चाहिए
कि मैं चल भी सकता हूँ।
एक उम्र तक
दौड़ भी सकता हूँ।
पुराने ओमपुरी के चेहरे से भी ज्यादा
कुरूप है
कल की
कोई कल्पना नहीं है।
कल की आशंकाएं हैं।
क्योंकि पंख ना हों,
पंखों में जान ना हो,
तो गिरता है आदमी।
कल के डर से
मेरे पंख गिर गये हैं
इसलिए
मेरा आज
पुराने ओमपुरी के चेहरे से भी ज्यादा
कुरूप है
क्या मुझे किसी भी कल के लिए
अमर पंख चाहिए ?
या
मुझे याद करना चाहिए
कि मैं चल भी सकता हूँ।
एक उम्र तक
दौड़ भी सकता हूँ।
6 टिप्पणियां:
ओमपुरी साहेब एक मील का पत्थर है !
पंख न हो तो कैसे गिरे आदमी ??
विलक्षण रचना...नए बिम्ब ,सार्थक प्रयोग...बधाई..
नीरज
कई बार पढ़ी कविता...हर बार लगा एक बार और पढूँ....कुछ भावनाओं को शब्द देना बड़ा मुश्किल होता है...और इस कविता ने यह काम बखूबी किया है...धन्यवाद
मुझे याद करना चाहिए
कि मैं चल भी सकता हूँ।
एक उम्र तक
दौड़ भी सकता हूँ।
saar garbhit rachnake liye aapko bahut bahut badhai .......
ओम पूरी जी की उपमा से अपनी हालत का अंदाजा होता है..बाकी खुद को याद करवाने की आपकी कोशिश एक यकीन की उड़ान के लिए उकसाती है. इस कल से हमें दो-दो पंख करने ही होंगे...;)
सादर शुभकामनायें!
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