सोमवार, 27 जुलाई 2009

तुम भी बेबस - मैं भी मजबूर, और कोई खुदा कहीं नहीं बचा

कांग्रेस हो या बीजेपी हो, या हो कोई दल
आम आदमी की बेबसी का नहीं है कोई हल
नहीं है कोई हल, सबके अपने धंधें हैं
आम आदमी की सांसों पर कई फंदे हैं

मुद्रा स्फीति क्या है बीमारी, मुझे क्या इससे लेना
रोटी, दाल भात ही मेरे पेट का गहना
मेरे पेट का गहना मँहगा हो गया है
मंहगाई की घुटन में ये दिल रो गया है

चांद पर अम्बानी टाटा बिरला की बस्ती है
हवाई जहाज की टिकटें, टेम्पो से सस्ती हैं
टिकटें सस्ती हो गई, रिश्ते दूर हुए हैं
अपने ही खून से दूर रहने को मजबूर हुए हैं

क्या होते माँ बाप? बीवी और बच्चा क्या है?
रंग बिरंगे नोटों से अलग, कुछ भी अच्छा क्या है
कुछ भी अच्छा नहीं, अगर ये नोट नहीं हैं
‘बे-नोट’ जो, उस में सबसे बड़ी खोट यही है।

किसान भी भूखों मर रहा, शहरी ग्राहक बेहाल
और सारे मजे ले गये सारी दालों के दलाल
सारी दालों के दलाल, दलाल स्ट्रीट चलाते हैं
पहली और पिछड़ी दुनियां की खाई गहराते हैं

दाल भी मंहगी सब्जी भी मंहगी, मंहगे आग और पानी
मंहगे कपड़े मंहगे मकान, महंगी सांसों की कहानी
महंगी सांसों की कहानी, अब कहो कैसे जीएं
कब तक घुटन मजबूरी के प्याले भर भर पीएं


सुबह से सांझ तक नौकरी, रात को चिंता ओढ़ो
बेबसी घुटन बेहोशी में, गिरते-गिरते दौड़ो
गिरते-गिरते दौड़ो, पीछे भीड़ का बड़ा सा रेला
कुचले जाओगो जो ठहरे पल भर समझने झमेला


जिन्दा रहने का एक उपाय, सांस लेना छोड़ दो
आशाओं उम्मीदों सपनों से रिश्ते तोड़ दो
रिश्ते तोड़ दो, अब इन्सान-सा कुछ भी बचा नहीं है
मशीनों में हो मशीन आदमी, सबको बस जंचा यही है

परमाणु बमों का इंतजाम है बहुत ही अच्छा
काश कि अब अहसान करे कोई अक्ल का कच्चा
अक्ल का कच्चा फोड़ दे, काश दो चार बमों को
कर दे दूर छः अरब लोगांे के दिवा-भ्रमों को

प्रलय का इंतजार, जाने क्यों अब अच्छा लगता है
किसी भी झूठे ज्योतिषी का कहना सच्चा लगता है
कहना सच्चा लगता है, कहो ये किसी बहाने से
दुनियां जाने वाली है, पाप के घड़े भर जाने से

रविवार, 26 जुलाई 2009

आपके इंतजार में

प्रतीक्षा या इंतजार मानवीय अहसासों एवं अनुभवों में घटने वाली एक घटना है। यह उन घटनाआंे में से है जो साँस लेने जैसी नियमित घटनाओं में आती है। प्रतीक्षा का अर्थ ढूंढने निकला तो यह सामग्री बन गई।

किसी इच्छा के पूर्ण होने पर उससे जन्मी अन्य इच्छा के पूर्ण होने के बीच का अंतराल प्रतीक्षा है।
जैसे हमें प्यास लगे और पानी की जगह शर्बत या शराब दी जाए तो काम नहीं चलेगा क्योंकि हमें पानी का ही इंतजार था। हमारा पूरा अस्तित्व पानी चाहता है- फीका, गीला सा, पारदर्शी, सामान्य शीतल पानी।
तो एक इच्छा से दूजी इच्छा के बीच सफर को प्रतीक्षा या इंतजार कहते हैं। प्रतीक्षा में जो प्राप्त है उस पर जो प्राप्त होने वाला है उसका अहसास ज्यादा हावी रहता है। प्राप्त होने वाले का ख्याल, कल्पनाएं और अदृश्य चित्रांकन जारी रहता है।
इंतजार अज्ञान की नहीं, अपूर्ण ज्ञान की स्थिति है। कुछ तो पता है और कुछ और पता चल जाने वाला है, स्पष्ट हो जाने वाला है - यह इंतजार का स्वरूप है।
तत्कालिक इच्छा पूरी न होना और इंतजार खत्म न होना एक ही चेहरे की दो आंखें हैं। इच्छा पूरी हो जाए और इंतजार शेष रहे तो यह एक कानी स्थिति है या इंतजार खत्म हो जाए और इच्छा पूरी न हो यह भी एक कानी स्थिति है।
धैर्य और प्रतीक्षा के बीच गहरा संबंध है। धैर्यपूर्वक इंतजार किया जाता है। अधैर्यता, धीरज न रखना और इंतजार न करना - घटने वाली घटना को समय पूर्व ही स्पष्ट करने की चेष्टा इष्ट नहीं करती। धैर्य, आशा, निराशा- आशंका से परे प्रतीक्षा की नींव है।
इच्छा के दो रूप होते हैं: आशा और आशंका। शुभ संभावना को आशा और अनिष्ट की शंका को आशंका कहते हैं। यह वाक्य सरासर गलत है कि ‘मुझे तुमसे यह आशा नहीं थी।’ यह कहना चाहिए कि मुझे यह आशंका नहीं थी।
प्रतीक्षा और धैर्य से वह भी लभ्य है जिसकी इच्छा नहीं की जा सकती, इसलिए प्रतीक्षा और धैर्य असीम को भी सीमा में ला सकता है।
प्रतीक्षा अदृश्य की गहराईयों की यात्रा है। हमने यह शेर सुना ही है: हम इंतजार करेंगे तेरा कयामत तक, खुदा करे कि कयामत हो और तू आये। सारा ताना बाना कयामत, खुदा और अपने से पुनः मिलन - जीवन को भरपूर इंतजार बना देना है।

सोमवार, 6 जुलाई 2009

फर्क तो पड़ता है

फर्क तो पड़ता है

हो सकता है जीते हुए हमें
निरे आदमियों के बीच रहना पड़े

हो सकता है हम सांसें लें
इंसानों के बीच

हो सकता है हम
बेहतर इंसानों के बीच रहें
जरा-सा..खुद की तरफ.. या,
खुदा की तरफ भी बढ़ें

फर्क तो पड़ता है

आदमियों को भी,
इंसानों को भी,
बेहतर इंसानों को भी,
और खुद हमें भी


कबीरे ने कहा था
कि मेरे मरने पर
मोहल्ले वाले तेरहवीं तक मुझे याद रखेंगें या, मृत्युभोज तक
बीवी कुछ बरस...और
माँ-पिता कुछ बरस और

पर यदि मैं जिंदा रहूं
तो फर्क तो पड़ता है
उन्हें भी,
मुझे भी...


फर्क तो पड़ता है
मैं सांसें खुलकर और आसानी से ले सकता हूँ
गीत भी गुनगुना सकता हँू
देख सकता हूं
पहरों का बीतना बातों ही बातों में
काली रातों को गुजार सकता हूं
चांदनी के झांसे में
कल...
आने वाली सुबह का इंतजार भी कर सकता हूं...मस्ती में
बेशक उम्र से दिन-दिन
पत्ते पत्ते सा झड़ता है

फर्क तो पड़ता है...
मेरे हर रिश्ते को
यदि मेरे पास खुशी होगी
तो कहां नहीं पहुंचेगी उसकी खुशबू

और मेरा दुख
कितना मुझ तक रह पाएगा
सड़ांध को कहां छिपा लूंगा मैं

फर्क तो पड़ता है
कुछ मिला हुआ खो जाए तो
लाख ...बहुत कुछ मिल जाने पर भी

क्योंकि वो एक बार ही बनाता है
तुम्हें भी,
मुझे भी, किसी को भी

तो...फर्क तो पड़ता है
किसी के नहीं जाने पर
किसी के चले जाने पर