कविता
न छल होता न प्रपंच
न स्वार्थ होता न मंच
न चादर होती न दाग़
न फूस होता न आग
न प्राण होते न प्रण
न देह होती न व्रण
न दुष्ट होते न नेक
न अलग होते न एक
न शहर होते न गाँव
न धूप होती न छाँव
अगर हम जानवर होते
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रघुवीर सहाय
अतुकांत चंद्रकांत
चंद्रकांत बावन में प्रेम में डूबा था
सत्तावन में चुनाव उसको अजूबा था
बासठ में चिंतित उपदेश से ऊबा था
सरसठ में लोहिया था और ... क्यूबा था
फिर जब बहत्तर में वोट पड़ा तो यह मुल्क नहीं था
हर जगह एक सूबेदार था हर जगह सूबा था
अब बचा महबूबा पर "महबूबा था" कैसे लिखूँ?
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आदरणीय कविवर
सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
अट नहीं रही है
आभा फागुन की तन
सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो,
घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम
पर-पर कर देते हो,
आँख हटाता हूँ तो
हट नहीं रही है।
पत्तों से लदी डाल
कहीं हरी, कहीं लाल,
कहीं पड़ी है उर में,
मंद - गंध-पुष्प माल,
पाट-पाट शोभा-श्री
पट नहीं रही है।
राजेशा
"कट रही है"
बालों में सफेदी छंट रही है
उम्र बीत रही है, घट रही है
अब वो जुल्फें भी नहीं घनी काली
जो सपनों में उलझी लट रही है
पहले तो चुप चुप रहती थी पत्नी
अब मुकाबले में डट रही है
कभी तो सोचते थे होगी जिन्दगी
अब ये कहते हैं सबसे "कट रही है"
बचपन तक रही एक ही आयु की रस्म
गुजर चली जब - हिस्सों में बंट रही है
नीदें भी साथ छोड़ चली हैं अब
कभी जो मेरी चिन्ताओं का तट रही हैं
आंखों में धुंधलके आते जाते हैं
पर भ्रमों की परछाईयां हट रही हैं
5 टिप्पणियां:
sabhee kavitae badee acchee lagee .
aabhar
बहुत उम्दा संकलन..रघुवीर सहाय की कविता तो आज ही किसी ब्लॉग पर पढ़ी.
१.काश हम जानवर ही होते.
उच्च कोटि की हैं सभी कवितायेँ.
पहले तो चुप चुप रहती थी पत्नी
अब मुकाबले में डट रही है
पहले कहती नूर मुहम्मद
फ़िर कहती जी नूरा
गर्ज दिवानी निकल गई तो बैल पिला ला बे नूरा
Sabhi rachnayen behad achhee hain!
आंखों में धुंधलके आते जाते हैं
पर भ्रमों की परछाईयां हट रही हैं
Harek rachana kee harek pankti dohrayi ja sakti hai!
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