अज़ीब सी खुजली है ब्लाॅगिंग भी - कभी तो लगता है न पैसे न यश। एक झूठी-सी अयथार्थ दुनिया। क्या पता कौन सच्चा है कौन झूठा। कौन औरत है जो आदमी के नाम से ब्लाॅगिंग कर रही है और कौन आदमी है जो औरत की फोटो चिपका कर कमेंट्स के मज़े ले रहा है। दो-महिला पुरूषों को व्यक्तिगत तौर पर जानता हूं। एक महिला के घर 5-10 वर्ष पुरानी पत्र पत्रिकाओं का भंडार है। कुछ ऐसी मरी पत्र पत्रिकाओं का भी जो अब जिंदा नहीं रहीं। पर आधुनिक कहानियां कविताएं कही जाने वाली सामग्री अपनी शाश्वतता के मामले में ऐसी हैं कि वो तब भी उतनी ही प्रभावी थी जितनी पैदा होते समय और अब मरने के बाद भी उतनी ही प्रभावी हैं यानि जो आधुनिक-कला-रसिक मार्डन आर्ट प्रेमी देखे पढ़े, वो तो प्रभावित होता ही है। ये अलग बात है जिनके एंटीने कैच नहीं करते वो नाक भौं सिकौड़ कर निकल लेते हैं, कमेंट नहीं करते। तो ऐसी सामग्री भी ब्लाॅग्स में खपा दी जाती है।
कुछ ब्लाॅगकर्ता ताजी सब्जियों को ही विभिन्न मसालों में परोसते हैं उनके विषय तो सामयिक ही होते हैं, सामयिक में तत्कालिक से लेकर माह से छः माह पुराने विषय भी आ जाते हैं। अब ”सामयिक“ शब्द के अर्थ की ऐसी तैसी हो तो उनकी बला से।
फिर कुछ ब्लाॅगपुरूष ऐसे हैं जो तत्कालिक मुद्दों पर नजर रखते हैं और चुन-चुन कर पिछले इतिहास और अगले भविष्य को दृष्टिगत रखते हुए ब्लाॅग सामग्री प्रस्तुत करते हैं ऐसे विद्वजनों से ही ब्लाॅग्स जगत की महिमा है।
पर शाश्वत ब्लाॅग-पितृ-पुरूषों का तो कहना ही क्या। ये ब्लाॅग पितामह ऐसे व्यक्तित्व हैं जो शाश्वत और मौलिक सामग्री के जन्मदाता होते हैं। इनकी पंक्तियां पढ़ के आनंद आ जाता है और जब भी ये सामग्री देखो.... आता ही रहता है। निश्चित ही ऐसे महानुभावों का आदर भी होना चाहिए। इन दुर्लभजनों की खोज में ही हम विभिन्न ब्लाॅग्स पटलों पर जाते हैं इनसे लिंक्स बैठाने में मजा आता है।
हमारा विषय था ब्लाॅगिंग की ये खुजली पैदा होने का। ब्लाॅगिंग की ये खुजली तब पैदा होती है जब हम विभिन्न ब्लाॅग्स पर तड़क भड़क वाले लेआउट्स में घटिया सामग्री और सरल सादे कलेवर में मजेदार सामग्री का खजाना देखते हैं। जी करता है अपन भी सिर आजमा लें। पर कौन सी बढ़िया चीज है जो पैदा होने में 9 महीने का समय नहीं लेती और देखिये उसके बाद भी आदमी की शक्ल में क्या-क्या पैदा हो जाता है। तो खुजली पैदा हो जाती है कि ब्लाॅग तैयार करें कुछ नया पेश करें। कुछ नया यूं ही पैदा नहीं हो जाता। दिन भर के कार्यालयीन काम काज से निपटे रात को थककर डेस्कटाॅप पर बैठे लोग क्या लिखेंगे अन्य लोगों के ब्लाॅग देख देख कर ही नींद आ जाती.. और सुबह हो जाती है। लेकिन कभी कभी सभी को लगता है कि हम उस कम्बख्त से तो बेहतर ही लिख सकते थे जिसे फालतू के विषय में ढेरों चिप्पियां मिलीं। चिप्पियां शब्द चुम्मियां शब्द के निकट का है। ऐसे लगता है किसी ने चूमा।
तो खुजली का मजा ये कमेंट्स हैं। कमेंट्स की तलाश में ब्लाॅगकर्ता पैदा होते हैं ओर उनसे ब्लाॅग। जे कृष्णमूर्ति कहते हैं -ब्लाॅगकर्ता ही ब्लाॅग है। ये फिलासफी ये कहती है कि आप जो पैदा कर रहे हैं आप वही हैं यानि अगर आपसे कुछ श्रेष्ठ निकल रहा है तो श्रेष्ठ और घटिया निकल रहा है तो शक की गंुजाइश नहीं। यदि आप यथार्थ को स्वीकार कर लेते हैं तो ही रूपांतरण संभव है।
पर खुजाल अपनी संभावनाएं तलाश कर ही लेती है। सर्वश्रेष्ठ का पहुंचा उसे अपने हाथ में नजर आता है और निकृष्ट की चोटी खींच पटक देने का बल भी उसके पास होता है। अलग बात है कि अंगूर खट्टे हो जाते हैं।
खराश को मेहनत करने में नहीं, छीलने में नहीं हल्का-हल्का सहलाने में मजा आता है। तो ब्लाॅगकर्ता को कभी नहीं लगता कि ब्लाॅगिंग को पूर्णकालिक कर्म बनाना चाहिये। आॅफिस में टाइम मिलने पर, कभी कभार पवित्रदिवस (संडे) को घर में ब्लाॅग पर कुछ अपलोड कर दिया तो कर दिया।
लेकिन ब्लाॅग-पितामह खराशातीत होते हैं। उनका बिग बी जैसा पूर्णकालिक कर्म होता है ब्लाॅगिंग। कुछ अन्य इस हेतु मानवीय कर्मचारी भी नियुक्त कर देते हैं। हल्का-हल्का या गहराई से खुजलने, सहलाने, मलहम लगाने, खुजाल स्थलों को सूखा छोड़ देने, अन्य लोगों की खाल निकाल कर ओड़ लेने में माहिर ब्लाॅगकर्ता भी अवतरित हो चुके हैं।
विगत वर्षों में ब्लाॅगकर्म ने तेजी से हाथ पैर और सारा शरीर ही पसार लिया है। वेबसाइट्स की असामथ्र्य या मुफ्त की, प्रयोग में सरल साइट्स की तरह ब्लाॅग्स के फायदों के कारण भारतीय साहित्य अनुरागियों ने अपूर्व रूप से इस नये नये जने क्षेत्र के मजे लिये हैं। पहले जो साहित्यानुरागी अपनी छपास को पत्र पत्रिकाओं से नहीं पूरा कर पाते थे उन्होंने भी अब ब्लाॅग्स का आश्रय लिया है। चिप्पियांे के रूप में कोई सहलाये या न सहलाये, खुजाल को जाहिर कर देने का आनंद तो मिलता ही है। वैसे भी ये इंटरनेट जगत कागज के फूलों सा है और हम फिर संभावनाएं पैदा कर लेंगे.........ये खुजली अगर मिट भी जाये तो क्या है।
सोमवार, 29 जून 2009
बुधवार, 24 जून 2009
बरस जा बादल
बरस जा बादल
सूरज की आग भरी अंगड़ाई
दुपहरी के तपते तवे को
डूबो दे मिट्टी की खुशबू में
रच जा रूह के नथनों में
कर दे पागल
बरस जा बादल
अब नहीं नहायेगी
सूखे पोखर की दरारों में
कोई अविछिन्नयौवना
न चलायेगी हल
यूं ही यूं ही तरस न बादल
बीज हैं जिंदा
धरती की कब्रों में
बन जल कर दे हल
लहरा जाने दे नभ तक
कोमल कोंपलों का बल
कुओं की गहराई
नदियों के कछार
तालों सागरों का विस्तार
मानव मन भी हार
हुआ है आकुल
बरस जा बादल
सूरज की आग भरी अंगड़ाई
दुपहरी के तपते तवे को
डूबो दे मिट्टी की खुशबू में
रच जा रूह के नथनों में
कर दे पागल
बरस जा बादल
अब नहीं नहायेगी
सूखे पोखर की दरारों में
कोई अविछिन्नयौवना
न चलायेगी हल
यूं ही यूं ही तरस न बादल
बीज हैं जिंदा
धरती की कब्रों में
बन जल कर दे हल
लहरा जाने दे नभ तक
कोमल कोंपलों का बल
कुओं की गहराई
नदियों के कछार
तालों सागरों का विस्तार
मानव मन भी हार
हुआ है आकुल
बरस जा बादल
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