Monday 31 March 2014

दिल की धोखा खाने की आदत


जिधर रोका वहीं जाने की आदत
दिल की धोखा खाने की आदत

उम्र ने कहा दानां बनो ना
हमें नादान कहाने की आदत

बिना वजह रूठ जाते हैं वो
जाने है मेरी मनाने की आदत

अजनबी ले लेतें है मुझसे वादा,
शक्ल पर चिपकी, निभाने की आदत

सबको पता,  कब.. होंगे कहां
जिंदा घर, मुर्दा श्मशान जाने की आदत

तुम तो कभी... आवाज दोगे नहीं
हमें ही सुनने-सुनाने की आदत

तेरी हकीकतों से रूबरू तो हुए हैं
... जाएगी जाते जाते ख्वाब सजाने की आदत

सारी दुनियां खाक होनी ही है
...  हमें जलने, उन्हें जलाने की आदत

पता नहीं रूह का, फिर होता होगा क्या?
जिस्म की कभी भी, मर जाने की आदत

और ठगे दुःख होय

साहिब आप ठगाईये, और ना ठगिये कोय
आप ठगैं सुख उपजै, और ठगे दुःख होय

वाणी जयराम के मधुर स्वरों में कबीर के सच का बहना एक आनन्ददायक भजन बन जाता है। 
कबीर ने दोहों में परमात्मा को साहिब कहा है। ‘साहिब’ चीनी नेपाली कांचा की आवाज में ‘ओ शाब’ या शाप बन गये हैं। तो कबीर का साहिब से सरोकार था - जो मालिक है, सब देता है, सबका सारा ध्यान रखता है और यह भी कि आदमी को भी उसके नौकर या दास की तरह उसका ध्यान रखना चाहिए। उन युग के संतों में एक खास बात पाई गई...सबने अपने पीछे ‘दास’ जोड़ा है... समर्पण का भाव। सूर, तुलसी, वल्लभ, मलूक, कबीर, रै-दास ‘रह दास’.. साईं बाबा ने भी जब ‘मालिक’ कहा था तो साईं दास ही था। नाम के आगे ‘स्वामी’ लिखा जाये तो कुछ शेष रह गया दिखता है पर आपके छोटे से नाम के पीछे दास हो तो मालिक का सीधी कृपा आती दिखती है। फिर सारी जिम्मेदारी मालिक की। खैर!

इस दोहे के अर्थ के पूर्व वो कुछ, जो जानना जरूरी है।  ‘ठ‘ +ग’= ठग । ‘ठ’ से ठगी की और ‘ग’ से गया। ‘चोर’ जो चोरी-छुपके से आये और बिना खबर सब चुरा ले जाये (वो नहीं चाहता कि आपको खबर हो), लुटेरा जो दिन दहाड़े आपके सामने ही आपको लूट ले जाये (वो आपसे नहीं डरता है पर भीड़ में पकड़ा ना जाये इससे डरता है) और डाकू जो आपके सामने ही नहीं, दुनियां भर के सामने आये, और पुलिस को भी खबर कर दे कि देखो ‘मैं आ रहा हूं, बिगाड़ सको तो बिगाड़ लो जो बिगाड़ना है। तो मात्रात्मक और गुणात्मक अंतर हैं... चोर, लुटेरे और डाकू में।

पर ‘ठग’, एक विचित्र अर्थ देने वाला शब्द है। कबीर कहते हैं कि साहिब आप ठगाईये। ठग जो मीठे-प्यारे व्यवहार से, आपका अपना ही बन के, आपके और दुनियां भर के सामने आपका सर्वस्व ले जाये, खून कर जाये और आपको पता भी ना चले। हमारे देश में नटवरलाल, चाल्र्स शोभराज जैसे ठग जेलों में बुढ़ापा काट रहे हैं। कई बार पकड़े गये, पर पुलिस-कानून से भी ठगी। और फिर आपके सगे संबंधी, आपके साथ क्या करते हैं आपको पता ही होगा। 

तो कबीर कहते हैं ‘साहिब आप ठगाईये’ -हे साहिब तू मुझे ठग। ‘और ना ठगिये कोय’ - मुझे कोई दूसरा ना ठगे, ठग पाये। ‘आप ठगैं सुख उपजै‘ - हे साहिब जब आप ठगते हैं तो सुख उपजता है, पैदा होता है। हे प्रभु जब तू ठगता है तो बड़ा मज़ा आता है, बड़ा सुख पैदा होता है, बड़ा आनंद आता है। ‘और ठगे दुख होय’-लेकिन कोई और, पराया ठगता है तो दुख होता है। लेकिन साहिब की वो कौन सी ठगी है जिससे सुख उपजता है? और किसी ‘और’ की वो कौन सी ठगी है जिससे दुख होता है?

यहाँ ‘और’ शब्द के बड़े निहितार्थ हैं- ‘और’ का मतलब साधारण सामान्य तौर पर इस्तेमाल किये जाने वाले शब्द ‘और’ से है जिसका अर्थ - ‘जो है उसके अतिरिक्त, ज्यादा’ मोर। ‘और’ यानि ‘ईश्वर के अतिरिक्त जो अन्य या पराया है वह‘। और यानि गैर। ‘और’ यानि वो संबंध जो रक्त के हैं तथा वो संबंध या रिश्ते जो हमने बना लिये। रिश्ते कुदरती हों या हमारे बनाये... स्वार्थ का गोंद काम करता है। स्वार्थ यानि हमारे अपने मतलब.... हमारे मतलब यानि हमारे भीतर उपजने वाली इच्छाएं....कामनाएं। तो ‘और’ का अर्थ ‘इच्छाएं-कामनाएं-वासनाएं’ भी हैं। रिश्तों के रूप में ‘और’ हमें कई तरह से ठगता है। मां-बाप द्वारा अपनी संतानों से पाली गई उम्मीदें-सपने ठगी हैं, वो बच्चों के कुदरती विकास को ठग लेती हैं। फिर समाज ठगता है किसी व्यक्ति को अपने ही सिस्टम और ढर्रे पर चलाकर। फिर धर्म के ठेकेदार ठगते हैं ईश्वर के डर दिखाकर। भूख, प्यास की शक्ल में में देह का रिश्ता ठगता है। प्रेम-स्नेह के मुखौटे में दैहिक वासनाएं ठगती है। इन सबसे पैदा हुए दुःख के नर्क में हम रहते हैं। 


लेकिन ईश्वर की ठगी क्या है? ईश्वर की ठगी अनोखी है। वो आपको सुखों की शक्कर देकर, शुगर का मरीज ही नहीं बनाता। वो समय-समय पर सच के काढ़े देकर, आपकों कई तरह के बुखारों से मुक्त करता रहता है। आपकी असंतुष्टि, बेचैनी, असफलताएं। आपके घमंड का बार बार टूटना। आपके सच्चे-झूठे रिश्तों की मौतें। आपकी बेईमानयों की सजाएं। आप जब खुद की छलते हैं, तब वह दर्पण सा सामने आकर आपसे सारे छल, ठग लेता है... सारे मुखौटे और आवरण उतार कर निर्वस्त्र कर देता है। वो सब छीनकर आभाव देता है, आपको विवश करता है... झूठे धन-समृद्धि, झूठे सुख-संतुष्टि, झूठे वासना आधारित प्रेम से परे ले जाकर.. वो दिखाता है जो आपकी हकीकत है... जो परमानंद है.. बिना ‘और’ कुछ हुए। बिना ‘और’ पाए बिना किसी ‘और’ से किसी तरह रिश्ता बनाए।

Thursday 27 March 2014

प्रेम का गड्ढा


प्रेम का गड्ढा
खींचता लपक—लपक
पुकारता अपनी तरफ
और फतवे देता—
'जीने का मैं ही.. असली अड्डा'

प्रेम का गड्ढा
पत्थर पर है
पानी ने खोदा है
पत्थर पर खुदा है
पानी ही तो खुदा है

प्रेम के गड्ढे के
दबे हुए ऊपरी उभार
और निचले कोने की झील
बहने को बैठी उधार

प्रेम का गड्ढा गहरा है
किनारों पर कुल दुनियां के
कानूनों और उम्रों का पहरा है
पर पानी का बहना
कब ठहरा है

प्रेम के गड्ढे के
'तू— और 'मैं दो मौसम हैं
गर्मियों में पसीने की ठंडक
और सदिर्यों में रजाई की गर्मी

प्रेम की नदी किनारे
कितने ही गड्ढे आबाद हैं
तेरे अन्दर के पुरूष की पुकार से
मेरे अन्दर की स्त्री के इंतजार से