बस यही दुख था...
कि मैं जब भी... जहाँ था
वहाँ मुझे कुछ घंटे या...
महीने भर ही सुख था
मैं वहां सालों रुका रहा
मुझे वहां सालों रूकना पड़ा
और आज मैं
बीता हुआ
बड़ा ही गया...और बीता हुआ
महसूसता हूं...
कि मैं ठहरा ही ठहरा
चला ही नहीं..भटका ही नहीं..
ना मेरे खयाल में कोई मंजिल आई
ना मुझे कोई राह सुझाई
तो क्या वक्त के मुताबिक चलने का मतलब
ठहरना कदापि नहीं होता?
या ठहरने का
वर्ष नाम की इकाई से कोई संबंध नहीं?
कितना चलना चाहिए?
कितना रूकना चाहिए?
कितना अकड़ना चाहिए?
कितना झुकना चाहिए?
कितना रूपये काफी होते हैं...जीने के लिए?
कितना रूपया काफी होता है...मरने से बचने के लिए?
क्या 'रोजी—रोटी' भर..जीवन का लक्ष्य हो सकते हैं?
या किसी दुनियां भर का एक चक्कर लगा लेना...
दुनियां भर की यादों से अपना इतिहास सजा लेना
यही जीवन का चरम है...
और अगर ऐसा नहीं..
दुनियां कभी भी कुछ खास होती नहीं...
इसके बकवास और निरर्थक होने में कभी कोई कमी नहीं होती
तो वैसी ही सटीक है..
जो अभी चल रही है..
Wednesday 23 October 2013
Wednesday 2 October 2013
हल नहीं ढूंढा करते
खाक में गुजरा हुआ कल, नहीं ढूंढा करते
वो जो पलकों से गिरा पल नहीं ढूंढा करते
पहले कुछ रंग लबों को भी दिये जाते हैं
यूं ही आंखों में तो काजल नहीं ढूंढा करते
बेखुदी चाल में शामिल भी तू कर ले पहले
यूं थके पैरों में पायल नहीं ढंूढा करते
जिस ने करना हो सवाल आप चला आता है
लोग जा जा के तो साहिल नहीं ढूंढा करते
ये हैं खामोश अगर इस को गनीमत जानो
यूं ही जज्बात में हलचल नहीं ढूंढा करते
पीछे खाई है तो आगे है समन्दर गहरा
मसला ऐसा हो तो फिर हल नहीं ढूंढा करते
Subscribe to:
Posts (Atom)