Sunday 3 March 2013

गुलाब, कैक्टस और बाबू मद्रासी का कुत्ता


बाबू मद्रासी सरकारी दफ्तर में दफ्तरी था। रामखिलावन की पत्नी ने पूछा-दफ्तरी क्या होता है? रामखिलावन ने बताया था - दफ्तरी होना एक मुगालता होता है। दफ्तरी मतलब ‘कुछ’ होने का भाव। दफ्तरी स्वयं को सारे दफ्तर की गतिविधियों का केन्द्र मानता है, वो चौराहे पर बैठा वो कुत्ता होता है जिस पर से नए-नए मेट्रो हुए शहर की बस गुजर जाती है और वो समझता है कि बस ने उसके चौराहे पर फैले होने का ध्यान रखा और बाकायदा बड़ी सटीकता से उसकी पूंछ के बालों का भी बांका किये बगैर गुजर गई। खैर हमें इस दफ्तरी और कुत्ते की तुलना से कुछ आगे बढ़ना है। 

निराला की एक कविता है- गुलाब और कैक्टस। गुलाब विशिष्ट पूंजीपति शासक अभिजात्य वर्ग का प्रतीक है और कैक्टस दबे-कुचले शासित श्रमिक वर्ग का। रामखिलावन ने बताया कि निराला भी उस वर्ग को बिसरा गये जो असली संसारी है। ना इधर का ना उधर का.. मध्यम वर्ग। 

रामखिलावन के हिसाब से बाबू मद्रासी कन्वर्टड ईसाई था। कन्वर्ट होने, बदलने की जरूरत किसे थी? कोई ब्राम्हण क्यों कन्वर्ट होगा? कोई क्षत्रिय भी क्यों कन्वर्ट होगा? कोई वैश्य भी क्यों कन्वर्ट होगा? कन्वर्ट वो होगा जो कुछ है ही नहीं... जो किसी सूची में अनुसूचित है या जो अभी भी जंगलीपन से उबरा नहीं है..जनजातीय है.. पता नहीं अनुसूचित जाति और जनजाति का अर्थ क्या है? या शायद चालाकों को हरिजन में भी भेद दिखा कि वो तो हरि के जन और हम...? तो अब आप भी जानते हैं रामखिलावन चलने से पहले ही भटक जाता हैं।

‘बाबू मद्रासी’ उस दफ्तरी को दिया गया सरल नाम था। सारे मुहल्ले के लोग उसे इसी नाम से जानते थे पर बुलाते नहीं थे। दरअसल हमारा असली नाम वो होता है जिसे हमारे पीछे लोग एकदूसरे से बातचीत में इस्तेमाल करते हैं। बाबू मद्रासी को कहीं से पता चला कि उसके अफसर की कुतिया ने पिल्ले जने हैं। तो बाबू ने दफ्तरी.. दफ्तर और अफसर की कडि़या जोड़ते हुए कुत्ता प्राप्त कर लिया। कुत्ता देखने में साधारण था वैसे ही जैसे हमारे मोहल्ले में पाये जाने वाले.. पैदा होते वक्त ठीक ठाक और बाद में साधारण से अतिसाधारण होते जाने वाले और अंततोगत्वा खुजली खाकर मर जाने वाले कुत्ते। 

छोटा सा कुत्ता, सर्दी के दिन, वो कुत्ता अक्सर सोसायटी का चैकीदार के पास दिखता। शायद बाबू मद्रासी को लगा कि इतना साधारण सा कुत्ता लेकर उसने ठीक नहीं किया. बाबू को लगा कि उसके अफसर ने कुतिया का ध्यान नहीं रखा। कालान्तर में खिलाने-पिलाने पर कुत्ता अच्छा खासा दिखने लगा। बाबू के बच्चे उसे उठा-उठा कर घूमने लगे। धीरे-धीरे बाबू मद्रासी ने महसूसा कि कुत्ता अब ऐसा हो चला है कि सुबह सुबह-साथ ले जाया जा सकता है। घरवाली के पेटीकोट के महंगे नाड़े से बंधा मोटा सा पिल्ला सोसायटी के गेट पर जाकर अटक जाता, तो बाबू को समझ नहीं आता कि क्या करे? खैर घसीट-घसाट के कुत्ता मोहल्ला दर्शन या मोहल्ले की सड़कों के किनारे गंदगी फैलने जाने लगा। रामखिलावन कहते थे कि मोहल्ले के कुत्ते, पालतुओं से ज्यादा प्राकृतिक और समझदार होते हैं... वो मूत्र और पखाने के बाद धूल उड़ा कर ढंक दिया करते हैं, इन पालतुओं में वो तमीज भी नहीं होती।

खैर कुत्ता धीरे-धीरे बाबू मद्रासी का हो गया और बड़ा होता गया। पहले माले पर स्थित फ्लैट की बालकनी में बंधा कुत्ता कूंकियाता रहता। कुत्ते का बाबू के परिजनों यानि मनुष्यों में रहना था। पिछली टांगों के बल खड़े होने पर बालकनी से उसकी अपनी प्रजाति से लगते कुत्ते मोहल्ले भर में दिखते, उनसे उसके वही संबंध थे जो बाबू मद्रासी होने देता। जब मोहल्ले के कुत्ते भौंकते तो उसे समझ में नहीं आता और जब बाबू मद्रासी का कुत्ता भौंकता तो मोहल्ले के कुत्ते बिना उस ओर ध्यान दिये अपनी गतिविधियों में लगे रहते। रहने, खाने-पीने, दिन में दो एक बार टहलने को मिलता। धीरे-धीरे कुत्ता विचारक होता गया। रोटी-कपड़े-मकान के बेसिक इंतजाम के बाद मध्यवर्गीय भी अक्सर विचारक हो जाते हैं। कुत्ता अपने जैसे अन्य पालतू और मोहल्ले में आवारा विचरते कुत्तों के बीच तुलना करने लगा। क्या उसकी जिंदगी अच्छी है या ये जिंदगी ही नहीं है? या मोहल्ले के आवारा कुत्तों का जीना नर्क है उसकी ही जिंदगी स्वर्ग है? कुत्ता मनुष्यों के बीच था, वो कुत्ता था और मनुष्य मालिक थे। हालांकि भोजन में कुछ तो उसे कुत्ते होने के हिसाब से मिलता, पर कुछ मालिकों के खान-पान के हिसाब से भी ग्रहण करना पड़ता। जब उसे बाहर जाने की तलब होती तो मालिकों को फुर्सत ना होती और जब वो नहीं जाना चाहता मालिक टहलने की औपचारिकता को पूरा कर फ्री होने के लिए उसे घसीटते। धीरे-धीरे उसे अपने हिसाब से ना चलने देने का मनुष्यों का व्यवहार अत्याचार लगने लगा। इंसान होता तो वो इसे ‘आजादी’ शब्द से व्यक्त करता। 

मोहल्ले के कुत्ते आजा़द थे, वो जब चाहे भौंकते, जब चाहे छाया में रहते, जब चाहे धूप में, जब चाहे बारिश में भीगते। रात को कुत्ते के भौंकने से सारा मोहल्ला गूंज जाता। उसे जरूरत ही नहीं पड़ती। उसे समझ ही नहीं आता था कि वो इंसानों के बीच ही क्यों है? क्यों उसे पाला गया है? क्यों उसका इतना ध्यान रखा जाता है? क्यों नहीं उसे मोहल्ले में आजाद छोड़ दिया जाता? धीरे-धीरे उसने तुलना करनी शुरू कर दी। वो जहां था सुरक्षित था, सर्दी-गर्मी, धूप-बरसात से बचा हुआ था, खाने-पीने और वातानुकूलन के इंतजाम थे। बीमार पड़ने, खुजली होने पर उपचार की व्यवस्था थी। गली के कुत्तों का जीवन भी क्या जीवन था? एक तो ढेर-से पैदा होते? उसने ही बालकनी से देखा था कि एक कुतिया ने सड़क किनारे 7 पिल्ले जने थे। दो-चार दिन में 1-2 सड़क पर गुजरती कारों तले आते गये... एक आध ही बचा था जो महीने भर की उम्र पार कर सका। कुछ बड़े हुए कि खुजली हो जाती है? और लाख तरह की बीमारियाँ... समय पर भूख का निपटारा नहीं होता, बासा-सड़ा गला खाना, पीने को गंदा पानी? फिर अपने अपने इलाकों के लिए लड़ाई-झगड़े? किसी की टांग इंसानों ने तोड़ दी तो किसी के कान को प्रतिद्वंद्वी ने काट खाया, किसी के शरीर का एक भाग ही शरीर से बाहर है? किसी के बाल खुजली से पूरे झड़ गये हैं, पूरी तरह नग्न। एक 4 माह के पिल्ले को तो एक मोटा-सा सुअर जिंदा खा गया था। आज़ादी इतनी आसान नहीं होती। 

लेकिन दूसरी तरफ यह जीवन भी तो कितना ऊब भरा था। भूख नहीं है पर सामने भोजन पानी। ना खाओ तो बीमार समझा जाता। दिन भर पट्टे से बंधे रहो, टहलने भी जाओ तो मालिक के हिसाब से। ना मां बाप का पता ना कोई किसी यार दोस्त की खबर। मालिकों के तलवे चाटकर निज’कुत्तापन और गुलामी ही झलकती? मोहल्ले के कुत्तों की उसकी रिरियाहट समझ नहीं आती। यहां तक कि ना तो मोहल्ले के कुत्ते उसके पास फटक पाते ना ही उसे किसी को संूघने दिया जाता। कुत्ते होकर कुत्ता’इतर किसी प्रजाति मनुष्य में जीवन गुजारना... इसमें कहाँ की समझ थी।

रामखिलावन बोला - दफ्तरी और पालतू कुत्ते में ज्यादा अंतर नहीं होता, बस ये कि... शायद कुत्ता ये सारी बातें कभी सोच भी लेता हो।