Tuesday 26 July 2011

सुना है .... वहां पर पत्थर तो हैं ही।

यूं ही दुख रहेगा
यूं ही संघर्ष रहेगा
यूं ही टूटता रहेगा
हर आदमी

यूं ही बंटेगा आदमी
यूं ही कटेगा आदमी
हिन्दू में
मुसलमान में
सिख में
ईसाई यहूदी में
और
जो आदमी बंटेगा
जो आदमी कटेगा
वो आदमियों को और बांटेगा
वो आदमियों को और काटेगा
हिन्दू में
मुसलमान में
सिख में
ईसाई यहूदी में

दुख, संघर्ष और टूटन से
भ्रम का धुंआ उपजता है
और जन्मा डर
हमेशा बना ही रहता है।

और किसने कहा?
कि मुसलमान
हिन्दू, ईसाई, यहूदी
या सिख हो जाने से
डर खत्म हो जाता है

डर फिर भी नहीं जाता
डर बचाता है एक दूजे से
डर हदों को मान्यता दिलवाता है
डर बनाता है
भंगी चमार (शूद्र)
साहूकार (वैश्य)
फौजी हवलदार (क्षत्रिय)
बाबा के चमत्कार (ब्राह्म्ण)
मुहाजिर, कैथोलिक, प्रोस्टेंट
नेता, अफसर, जनता
आम आदमी

डर बनाता है
डर सपने दिखाता है
सफल निडर
लोकतंत्र में भीड़ की स्वतंत्रता के
समाजवाद में भीड़ की व्यवस्था के
राजतंत्र की एक सर्वोच्च सत्ता के

आदमी
यूं ही डरेगा
झुण्ड बनायेगा
झुण्ड में रहेगा
और सामने वाले से पहले
वार कर बैठेगा
इस तरह एक झुण्ड
अन्य झुण्ड से लड़ेगा
और
ऐसा तो पत्थर युग में होता है ना

तो
आदमी के क्लोन बनाने वाला
रोबोट और ड्रोन बनाने वाला
अन्य ग्रहों तक पहुंचा आदमी
पर, झुण्डों में रचा-बसा आदमी
(अगर अपने ही बमों से बच गया)
तो फिर से तैयार है
पत्थरों से लड़ने के लिए
अन्य ग्रहों पर।
जहां सांस रहने की जगह हो ना हो
सुना है
पत्थर तो हैं ही।

जो समस्याएं ही गिनाता रहे उसे अच्छा आदमी नहीं माना जाता। हल यह है कि “हमको भी गम ने मारा, तुमको भी गम ने मारा” तो आओ ये करें कि इस “गम को मार डालें”। तरीके गौतमबुद्ध ने बताये हैं कि पहले तो समझ लो कि दुख है, इसका हल है। ये कि, ये सब कुछ हमारे मन की भूमि पर ही उगा, पला, बड़ा और जंगल की तरह खड़ा है। ये सीखना बहुत जरूरी है कि हम अपने आपको ऐसे बच्चे की तरह महसूस करें जिसे उसकी मां ने जंगल में एक नदी पार करते हुए जन्मा और बह गई। ये बच्चा बंदरिया के दूध से पला, भालू के शहद से पोसा और जंगली कंदमूल और बेर खाकर बढ़ा है। जिसके दिमाग के कम्प्यूटर में हिन्दू-मुसलमान, ईसाई-यहूदी, एससी-एसटी, नेता-जनता, मर्द या औरत, भले या बुरे होने के साफ्टवेयर नहीं दौड़ रहे हैं। क्योंकि यहीं से इस दुनियां को बचाने की शुरूआत की जा सकती है। ये दुनियां, जो कितने ही वैज्ञानिक विकास के बाद नर्क बन पाये, चुटकियों में स्वर्ग जैसी बन सकती है।

Monday 18 July 2011

सच से भटकने के, जन्‍मों हि‍साब होते हैं

बेईमान इश्क बार-बार सिर उठाता है
लोग कहते हैं, घर बार द्वार उम्र देखो
लोग, घर बार द्वार उम्र में बंधे हैं
मुझे सबके नीचे दिखते चार कंधें हैं
क्या इश्क की जात, उम्र, समाज और लिहाज होते हैं

अजीबोगरीब तरीकों से लोग जिन्दा हैं
कोई किताबों में, कोई चरण पादुकाओं में बिछा है
इन्हें देख कर, मेरा ”होना“ शर्मिन्दा है
इन धुओं का, यूं ही हवाओं में मिलना दिखा है
तय में रहने के, तय भविष्य, रीति-रिवाज होते हैं

ढंके छुपे अंगों की तरह, छुपा लिया है
हर एक ने, खुद को, फलां-फलां घोषित किया है
हर एक तन्हा है, फलां फलां हो जाने से
क्यों सबने, ‘‘जो नहीं है’’, उसे पोषित किया है
सब जानते हैं, सच से भटकन के,  जन्‍मों हि‍साब होते हैं

Friday 15 July 2011

अनायास, बि‍ना स्‍ट्रगल कि‍ये... सब मि‍लना

चलो आज तुम्हारी तरह दुनियां भर से सारे खयाल बाँटूं। दरअसल मुझे मजा आता है ईश्वर की बातें करना, हालांकि तुम्हारे या किसी और की तरह, मैं भी उसके बारे में कुछ नहीं करता। लेकिन पीछे इतना कुछ पढ़ा-सुना है कि मुझे वही चीज सबसे महत्वपूर्ण लगती है। मुझे कुछेक वाक्य बार-बार अच्छे लगते हैं जैसे ”प्रभु से लगे रहो रे भाई, बनत बनत बन जाई“, ”होते-होते होता है“ आदि आदि। ऐसा नहीं है कि डर नहीं कचोटता कि बिना कुछ हुए ही मर गये तो, तो क्या होगा? वैसे भी इस जिन्दगी का कोई खास मतलब नहीं होता, सिवा इसके कि मरने के पहले ये जान लिया जाये कि जिन्दगी क्या है? कुछ लोग ये भी जानना चाहते हैं कि मरने से पहले ही, ऐसा कुछ जान लिया जाये कि कभी मौत ही ना हो, शरीर की भी। दो-चार सौ साल जिया... कोई शरीर तो कहीं दिखता नहीं, सो लोग किसी और सूक्ष्म रूप की कल्पना करते हैं और सोचते हैं वो ये सच हो जाये। खैर! मुझे ऐसी ही बातें करने में मजा आता है।
 
तुम यह जानते ही हो कि मुझे घुमा फिरा के बात करना अच्छा नहीं लगता मैं चाहता हूं कि सब साफ साफ रहे,
धुंधला-धुंधला, भ्रमित नहीं। जरूरत होने पर भी दुनियां की तरह वक्री चलने में मुझे बहुत तकलीफ होती है।
हालांकि हर वक्त परेशानी सताती है कि करूं तो क्या करूं। कुछ सूझता नहीं है और बरसों बरसों निकल गये हैं। ये बरसों बरसों का निकलता जाना भी दुख देता है। जवानी पक चली है, और बरस निकल रहे हैं। लगता है कि कुछ महत्वपूर्ण होना चाहिए पर सब महत्वरहित निकलता है... लगता है ”महत्वपूर्ण क्या है“, यह तय करने वाले हम नहीं हैं। ऐसा भी हो सकता है कि सारी दुनियां की तरह, मैं कुछ महत्वपूर्ण करना, चाहता ही ना होऊं और अपने आप को ही बना रहा होऊं। कौन अपने सुविधाओंभरे कोकून से निकलना चाहता है। कुछ चीजों की बातें करने में ही ज्यादा मजा है, बनिस्बत की वो हो जायें, शायद मैं ऐसे ही ना-सूझने में उलझा हूं। जो भी हो बड़ी बंधी-बंधाई सी है जिन्दगी... बरसों बरस से, मैं उकता चुका हूं.. उकताना बड़ा बुरा हो सकता है। मैंने सुना है-उकताने वाले लोग मानवबम बन जाते हैं। क्या किसी को इतना बोर किया जा सकता है कि वो मरने को तैयार हो जाये? योग, ध्यान, जप, तप, भक्ति..... हो सकता है ये सब बोर करने के ही तरीके हों, इतना बोर हो जाये कि मौत आये ना आये कोई फर्क ना पड़े बल्कि और सुभीता रहे कि चलो अब कोई अहसास नहीं रहा। अहसास का होना ही सबसे बड़े बीमारी है, अहसास जन्मजात रोग है.... आजन्म रहने वाला। 

 
दरअसल यह सब वो हकीकत है...जो मैंने सपने में देखी, मेरा कोई दोस्त परसों हुए बम विस्फोट में मारा गया वो अच्छा खासा भोपाल में जॉब कर रहा था, बीवी दो बच्चियां, मां बाप...सब हैं। कहता था बड़ा बोर हो गया है छोटे शहर की नौकरी से, उसका ग्राफिक्स डिजाइनिंग का काम औसत था। उसे उम्मीद थी कि मुम्बई में उसे किसी 5 दिन वर्किंग डे वाले अच्छे से आफि‍स में काम मिल जायेगा.. वो कहता था उसने जिन्दगी में कभी स्ट्रगल नहीं की। पढ़ाई के साथ ही नौकरी, नौकरी के साथ ही छोकरी, छोकरी के साथ ही बच्चे सब अनायास ही होता चला गया और.... आजकल वो बहुत बोर हो रहा था रोज 10 से 7
आफि‍स रूटीन से... सालों साल वैसी ही होली दिवाली... बीवी बच्चे मां बाप। मुझे लगता है वह नई नौकरी नहीं चाहता था क्योंकि भोपाल हो या मुम्बई... वहां पर भी तो यही सब होता.... शायद कुछ और झंझटें बढ़ जाती। मेरे ख्याल से वह इस तरह जिन्दा रहने के ख्याल से दुखी था। वह नहीं चाहता था कि उसे "कुछ ऐसा बोरियत सा, रूटीन सा महसूस हो" वो अहसास की कैद से रिहा होना चाहता था, हो गया... और इस बार भी... बिना कोई संघर्ष किये... बिना कोई स्ट्रगल किये... मुम्बई जाने के दो दिन बाद ही अनायास ही मौत भी मिल गई। 
मेरे पास वो बहुत सारे सवाल छोड़ गया है - क्या वो बम विस्फोट से मरा?  क्‍या आदमी को बोर नहीं होना चाहि‍ये? क्‍या बीवी-बच्‍चे-मां-बाप से बोर हुआ जाता है ? जि‍न्‍दगी में नयापन और अबोरि‍यतभरा क्‍या है? क्‍या वो वाकई ईश्‍वर की तलाश में था ?

Monday 11 July 2011

गरीबि‍याँ

तीन लड़कियां थीं, तकरीबन 5, 8 और 10 बरस कीं। सुबह का वक्त था जब बच्चे स्कूल बसों-वैनों में ठुंसे जा रहे होते हैं। वो शहर की पॉश ऐरिये में कचरे की टंकी के पास बरसाती मक्खियों, गाय, कुत्तों के साथ पन्नियां तलाश रहीं थीं। अंकल चिप्स और चाकलेट खाने की बातें करते-करते वो एक अच्छे घर के गेट पर जाकर खड़ीं हो गईं। उनमें से एक जोर-जोर से पुकारने लगीं ... आंटी खाना दे दो....आंटी खाना दे दो....पता नहीं घर पर कोई सुन रहा था या नहीं, सुनना चाह रहा था या नहीं...सुनकर सोच रहा था या नहीं। वो लड़की निरंतर पुकारती रही .. आंटी खाना दे दो....आंटी खाना दे दो.... तभी उसकी साथ वाली सबसे बड़ी लड़की उसको समझाते हुए बोली... देख ऐसे बोल.. और उसने धीरे से उसके पास उसने कुछ बोलकर दिखाया.. इस बीच ही उस घर में एक प्रौढ़ व्यक्ति दिखा तो वो छोटी लड़की पुकारने लगी... अंकल खाना दे दो....अंकल खाना दे दो....पर वो व्यक्ति ओझल हो गया और लड़की फिर से टेक लगाकर पुकारने लगी आंटी खाना दे दो....आंटी खाना दे दो....  
आज कोई दिन त्यौहार नहीं था, ग्रहण नहीं था, दीवाली-दशहरा नहीं था... हो सकता है जिस घर के पास वो बच्चियां खड़ीं थी, उसमें रहने वालों ने कि‍सी न्यूज चैनल पर आज सुबह भविष्यफल सुना, ना सुना हो। उसमें वो दान पुण्य वाले उपाय बताते हैं... जिनसे देने और मांगने वालों के अपेक्षित कर्म पूरे होते हैं।
शहरी गरीबी, गांव की गरीबी से अलग होती है। वो रोटी, कपड़े और रहने के लिए झुग्गियां या किराये के मकान मिलने के बाद जन्म लेती है। शायद सारी दुनियां में दो ही तरह के लोग हैं... अभाव पैदा करने वाले और अभावग्रस्त।

Saturday 9 July 2011

तुम ही प्रेम हो...


बहुत सारी बातें हैं
जिन्हें मेरा अहं
समझ नहीं पाता
जैसे नभ का फैला विस्तार
और समय
जिनका अंत नहीं है।

कई चीजें
अहं
अपने हाथों से पकड़ नहीं पाता
बहती बयार का संगीत,
सुबह की धूप,
पुष्प की सुगंध,
और भिगोकर छोड़ गई लहर

पर इनके बाद भी
हमेशा,
मैंने बहुत कुछ सहेज रखा है
वो सब, जो मुझे भला और प्रिय है

मैंने सहेजा है इन्हें,
संदेहों से भरे सिर में नहीं
जिसके पल्ले कुछ भी नहीं पड़ता
पर
दिल में,
जहाँ मुझे सुकून का अहसास होता है
जहाँ अन्तरतम तक भेदती है तुम्हारी नजर
जहाँ तुम्हारी सूरत में
प्रेम रहता है।

दरअसल कि‍ताब में कुछ लि‍खा हो
या कि‍ताब कोरी हो
दो मुड़े़ हुए पन्‍ने
कुछ तो कहते हैं ना 

Friday 8 July 2011

अपने अपने काश।


एन्तोन शेपेलेव ने उम्र को परिभाषित करने की कोशिश की है,
जवानी:  जबकि आप खूब धूम्रपान करते हैं, शराब पीते हैं और सारी रात अय्याशियाँ करते हैं तो भी दूजे दिन सुबह आपके व्यवहार से ऐसा कुछ भी जाहिर नहीं होता।
प्रौढ़ावस्था: जबकि आप धूम्रपान करते हैं, शराब पीते हैं और सारी रात अय्याशियाँ करते हैं तो दूजे दिन सुबह आपके व्यवहार से ये सब जाहिर भी हो जाता है।
बुढ़ापा: जबकि ना तो आप धूम्रपान करते हैं, ना शराब पीते हैं और ना ही रात को आपने किया होता है तो भी दूजे दिन सुबह आपके व्यवहार से ये जाहिर होता है कि पिछली रात आपने गांजा चढ़ाया है, शराब पी है और तरह-तरह की अय्याशियां कर करके थक चुके हैं।
अब बताईये आपकी उम्र क्या है?