Wednesday 6 October 2010

एक सुन्दरतम सन्ध्या


एक सुन्दरतम सन्ध्या
जब पावन काल
किसी साध्वी की मौन आराधना सा
शांत और मुक्त है।

इस खामोशी की मदहोशी में
एक सूरज
सागर के हर किनारे पर
अपने आप डूब रहा है।

स्वर्गीय विनम्रता
सागर की स्निग्ध छाती पर
उग आयी है।

सुनो
परमचेतना
जाग रही है।

उसके उगते हुए स्वरों में
किसी अत्यंतिक
तूफान सी सरसराहट है।

मेरे साथियों
यह प्रकृति कहीं भी
कम दिव्य नहीं है।

अपने सीने में
रहने वाले हर्ष को
सदैव महसूस करो।

उसी हर्ष के मन्दिर में
हमारी बाहरी भटकनों को जानने वाला
परमात्मा भी है।
भले ही हम उसे ना जानते हों।


विलियम वर्डसवर्थ की कवि‍ता का अनुभव

4 comments:

राजभाषा हिंदी said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
मध्यकालीन भारत-धार्मिक सहनशीलता का काल (भाग-२), राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

vandana gupta said...

बहुत सुन्दर्…………यही सत्य है।

वीना श्रीवास्तव said...

अपने सीने में
रहने वाले हर्ष को
सदैव महसूस करो।

उसी हर्ष के मन्दिर में
हमारी बाहरी भटकनों को जानने वाला
परमात्मा भी है।
भले ही हम उसे ना जानते हों।
बहुत सुंदर बात कही है...

http://shikanjee.blogspot.com/

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

वर्डसवर्थ को इतना सुंदर अनूदित करना कोई खेल नहीं है. बहुत सुंदर काम किया है आपने. पढ़वाने के लिए आभार.

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