Wednesday 14 April 2010

दिल में बैठा डर कोई था


गमजदा थमी धड़कने, धुंधली उम्मीदें, सोग हैं
और क्या किसे देखते, अपने ही जैसा हर कोई था

रोज रात को लौट के, जाना ही होता है वहां
मौत की राहें अजब, वैसे किसी का ना घर कोई था

जब भी बुरा सा कुछ हुआ, वो लफ्ज लब पर आ गया
नहीं खुदा सा नहीं कोई, था... दिल में बैठा डर कोई था

मेरे तजुर्बे झूठे थे, मेरा जानना इतिहास था
माजी में ही जीता रहा, मैं ही तो था, ना गर कोई था

मेरी नाउम्मीदी पस्त हो, जिस गाम पे थी ठहर गई
मेरी गरीब सी शक्ल को, जो तर करे, नहीं जर कोई था

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शब्‍दार्थ : सोग-शोक, लफ्ज-शब्द, तजुर्बे-अनुभव, माजी-अतीत, पस्त-हारकर, गाम-राह
तर- हरा भरा, जर -सम्पत्ति धन

7 comments:

रश्मि प्रभा... said...

dil ko bahut kuch kah janewali rachna

kunwarji's said...

दिल को छू कर वही बैठ गयी जी आपकी ये रचना!

एक बेहद बारीकी से की गयी मन के विचारों की अभिवयक्ति!

कुंवर जी,

Amitraghat said...

भावयुक्त रचना............."

P.N. Subramanian said...

बेहद सुन्दर. सचमुच दिल को झकझोर करने वाली. आभार.

Apanatva said...

bhabheenee kavita .

शरद कोकास said...

ग़रीबी सी शक्ल ... बेहद खूबसूरत बिम्ब है ।

दिगम्बर नासवा said...

बहुत कुछ कहती है आपकी रचना ... शशक्त ...

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