Tuesday 27 April 2010

पारदर्शिता


हर आयी हुई सांस
बस पल भर ठहर कर सीने में
फिर कुछ नया लेने
आकाश में जाती है!

हमारे मशीनी जिस्म का
हमेशा ताजा जिन्दा रहने का
यह अनूठा कुदरती तरीका है

फिर पता नहीं क्यों
मैं
हर शाम
धुंधली रोशनी में
गुजश्ता अहसासों के
जहरीले जंगलों में
क्या ढूंढता हूं

मैंने सांसों को रोका है
आकाश में बिखर जाने से पहले
और
आह की तरह जाहिर किया है

भावनाओं की छोड़िये
मैंने जिस्म की उत्तेजनाओं को भी
किताबों के कहने पर
जब तब कुचला है

उन किताबों के कहने पर
जो हर ऐरा गैरा नत्थू खैरा
अतीत से बदला
और वर्तमान पर चढ़ बैठने की खुन्नस में
कभी भी, कहीं भी लिख मारता है
और हद है नासमझी की
लोग
किताबों की टीकाओं पर भी
किताबें लिख मारते हैं।

मैं सपनों में भी रंगीन बादलों को
काला और सफेद बनाकर देखता हूं
पर रूई के फाहों का,
कोई गणित होता है क्या?

शर्म नहीं आती,
लोग आती-जाती गजलों को
अपनी गिनतियों में रखते हैं
कि मरने से पहले
किसी हवस को वाह-वाही का कोई पंखा झलता रहे।
जन्मो-जन्म बेहोशी का इंतजाम चलता रहे।

और उस गणित की परवाह ही नहीं -
कि बेहोशी में
पिछले 54 जन्म निकले हैं
और इस बार भी
उम्र छठवें दशक को पार करती है।

मेरा खुद से बस यही कहना है
कि
आती जाती सांस की तरह ही
हिसाब मत रखो
उन खूब-औ,-बदसूरत ख्यालों का
मत इकट्ठा करो
जहन के शीशे पर
कोई भी रंग
भले ही वो सफेद ही क्यों ना हो
क्योंकि
कोई भी रंग ढंक देता है
पारदर्शिता
और
पारदर्शिता में ही दिख सकता है
शीशे के इधर और
उधर का
हकीकत जहान।

Saturday 17 April 2010

उदासियों के सागर को, तेरा दामन किनारा था

जिन्दगी फकत तेरी मोहब्बत का सहारा था
वर्ना क्या था मैं, क्या ये दिल बेचारा था

जब कभी उम्रों के गम से, आजिज हम आये
उदासियों के सागर को, तेरा दामन किनारा था

लोगों से सुना था- माजी में जीना मुर्दानगी है
तेरी यादों से ही रोशन, मेरा किस्मत सितारा था

कयामत बाद मुझसे जब मिला वो खुदा बोला
कभी मारे मरे ना, ये उम्मीदों का शरारा था

बारहा पूछता है मुझसे मेरी शाम का मजमूं
हाय कैसे कहूं कैसा करारा, उसका इशारा था

Wednesday 14 April 2010

दिल में बैठा डर कोई था


गमजदा थमी धड़कने, धुंधली उम्मीदें, सोग हैं
और क्या किसे देखते, अपने ही जैसा हर कोई था

रोज रात को लौट के, जाना ही होता है वहां
मौत की राहें अजब, वैसे किसी का ना घर कोई था

जब भी बुरा सा कुछ हुआ, वो लफ्ज लब पर आ गया
नहीं खुदा सा नहीं कोई, था... दिल में बैठा डर कोई था

मेरे तजुर्बे झूठे थे, मेरा जानना इतिहास था
माजी में ही जीता रहा, मैं ही तो था, ना गर कोई था

मेरी नाउम्मीदी पस्त हो, जिस गाम पे थी ठहर गई
मेरी गरीब सी शक्ल को, जो तर करे, नहीं जर कोई था

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शब्‍दार्थ : सोग-शोक, लफ्ज-शब्द, तजुर्बे-अनुभव, माजी-अतीत, पस्त-हारकर, गाम-राह
तर- हरा भरा, जर -सम्पत्ति धन

Saturday 10 April 2010


डायबिटीज, ह्रदय रोग, पक्षाघात, एडस
नहीं यही बीमारियां नहीं होतीं
वो क्या है जो हमें मजबूर करता है
जिन्दगी भर
उन खुराफातों के लिए
जो कभी तो हम चाहते हैं
कभी नहीं चाहते हुए भी
सम्पन्न करते हैं
जैसे नौकरी, जैसे ब्‍लागि‍न्‍ग

गहरी नींद है
गहरा आलस है
और ‘मैं’ जकड़ा ही हुआ है
मौत के जबड़ों में

फिर भी चार पहर की नौकरी
चार पहर की खुमारी
दैहिक उत्तेजनाओं के बहकावे
कुछ बन जाने - कुछ हो जाने के छलावे
बीवी-बच्चे दुनियादारी

नहीं ये बीमारी तो नहीं है
फिर भी
जाने क्यों लगता है
रोज-ब-रोज
मैं स्खलित हो रहा हूं
खो रहा हूं अनायास ही
अपने आप ही
अपने होने जैसा सब कुछ

पुराना होता जिस्म
कम होता त्वचा का कसाव
चार सीढ़ियां चढ़ने पर भी
चढ़ जाने वाली सांसें
हरदम झुंझलाहट
कि अभी तक तो कुछ हो जाना चाहिये था

नहीं ये बीमारी नहीं है
ये मेरे मैं का मरना है
जो रोज जिन्दा होने के लिए
दफ्तर जाता है
काम करता है
गंभीरतापूर्वक
लोगों से फालतू बातचीत करता है
जबकि मालूम है
उसे और सबको
चौराहों पर होने वाली
मंडलियों में गाने बजाने वाली
सन्यासियों के समूहों में ध्यान करने वाली
और अब
इंटरनेट, ब्‍लागि‍न्‍ग ओरकुटिंग, बजिंग से होने वाली
इन गंभीर बातों से
5000 सालों से कुछ नहीं बदला

अब तो, तीन चार दशक निकल ही चुके हैं
और वो तो कभी भी आ सकती है
उसने पूछ के या
बता के थोड़ी आना है

क्या पता
वो आखिरी बहाना क्या हो
या कोई बहाना ही ना हो
क्योंकि सीधे ही आ जाना
उसकी कुदरत है

हमेशा
मैंने एक ही समाधान पाया है
कि उसका इंतजार किया जाये
हर पल
क्या पता किस पल के बाद
बस वही पल हो।
शायद उसकी बस एक झलक
मेरी लम्बी बकवास जिन्दगी को
अर्थ दे जाये।

मेरे अपने, और सबके लिये।
जो दो अलग अलग बातें नहीं है।

Friday 9 April 2010

असल मुददा



जमाने का अजब ढब हो गया है,
मुददे उठाना ही मुददा हो गया है
कि‍से खबर असल मुददा क्‍या है?
असल मुददा तो कहीं खो गया है

Thursday 8 April 2010

आदमी और होश

आदमी से होश संभलता नहीं है

लाखों योनियो से गुजरा हुआ इंसान
देवत्व से आती आवाजों से और भी परेशान हो जाता है
और तब निराशा उन्माद लाती है
एक गहन बेहोशी में जाने की बेताबी

त्रिशंकु स्वर्ग न मिल पाने के तथ्य से घबराकर
कई बार धरती की ओर कूदता है
वो चाहता है कि वो उस ऊंचाई
उस होश से बच सके
जिनसे उसकी आंखें कि‍सी स्वर्ग का मार्ग देख पाती हैं
दिखाती हैं
जि‍सके बारे में आज तक
ये भी  तय नहीं है
कि‍ वो कि‍तना हकीकत है



जो होश उसके कानों में उतर कर
संसार के कोलाहल में दिव्य आवाजें सुनाता है
क्योंकि और उपर उठने में
हजार बार नीचे गिरता है - निराधार अंहकार

आदमी पत्थर बन जाना चाहता है
क्योंकि चाहे अनचाहे
वो आज तक अपनी पशुता से नहीं उबर पाया है
नहीं उबर पया है
काटने, चाटने, चूसने की घृणित आवाजों से
नोचने, खंरोचने, भींचने के बर्बर अहसासों से
आदमी परेशान है
आंख, कान, नाक, हाथ, पैर जैसे जंगली अंगों से
परेशान है सांसों से,
जो दिल के धड़कने का कारण हैं
और अचानक कभी भी आने लगे हैं अब
हार्ट अटैक

इसलिए आदमी पत्थर हो जाना चाहता है
और कितने ही इंतजाम किये हैं उसने
5 हजार सालों में
वेद, कुरान गढ़े हैं
ईसाओं को सूलियों पर चढ़ाया है
सुकरात मीराओं को जहर के प्याले परोसे हैं

शनि, राहू, हनुमान से कई देवता
विश्वास और अंधविश्वास जैसे शब्दों के फेर गढ़े हैं

देखो मस्जिदों में अजानों की कैसेटें
पांचों बार पाबंदी से बजती हैं
सुनसान गायत्री मंदिरों में
नौकरी पर रखे गये आरती गायक का
साथ देती हैं घंटा, ताल और शंख बजाने वाली मशीने

वह दिन भी मैंने निकट ही देखा है
जब रोबोट
सारे मंत्रों का आदमी से करोड़ों गुना अच्छी तरह
उच्चारण कर लेंगे
और जब ब्रम्‍हा वरदान देने आयेंगे
तो उन्‍हें समझ ही नहीं आयेगा
कि‍ वो सृष्‍़ि‍ट कहां गयी जि‍समें
पशु और देवता के बीच की चीज
इंसान नाम का प्राणी रचा गया था।


रोबोट
कई तरह के दिव्य वातावरण गढ़ लेंगे
उनसे भी दिव्य
जो भांग, अफीम, गांजा और चरस
आदमी के अन्दर जाने पर
या बैठे बैठे रि‍मोट के बटनों से बदलते
असली रंगीन टीवी चैनलों पर
साक्षात दिखते और महसूस होते हैं
मुझे डर है
आदमी के गढ़े हुए रोबोट
कहीं आदमी से बेहतर कल्पनाएं ना करने लग जायें

रोबोटों को कहीं ये ना मालूम पड़ जाये
कि आदमी पत्थर होना चाहता है
क्योंकि ये तो उनके
विशिष्ट धातुओं से गढ़े हुए अस्तित्व की
आधारभूत और जन्मजात विशेषता ही है।
-- नि‍रन्‍तर --

Monday 5 April 2010

लोग चुप नहीं बैठते


लोग चुप नहीं बैठते

उन दिनों भी
जब नर्क की यातनाएं भोगते हैं।

जब मुंह अंधेरे, रोज सुबह शाम
किसी काली पैसेंजर ट्रेन में डेढ़ घंटे तक
अपने ही जिस्म से बलात्कार करते हैं।

और फिर दसियों घंटे
किसी बनिये की दुकान पर
सामान यहां से वहां रखते हुए
गंध छोड़ते हुए बोरों,
मर्तबानों, तेलों के कनस्तरों को ढंकते हुए

किये ही जाते हैं
नजरों, इशारों, मजबूरियों,
जरूरियों और अन्य
तरह तरह के विकट आसनों में
बनिये से, ग्राहक से
और जब कानों से सब चुप हों
तो खुद से ही
बड़ बड़ बड़ बड़

कभी अभाव
कभी महंगाई
कभी मिलन की ऊब
कभी जुदाई
और जब सब सटीक हो
सब ठीक हो
तब भी
... कुछ और भी.... की हवस बयान करते हुए
करे ही जातें हैं
बड़ बड़ बड़ बड़

ग्लोबल वार्मिंग की
एक वजह ये भी है
आदमी के जिस्म से निकली ऊर्जा
कहीं नहीं खप रही
सुखा रही है
धरती का पानी
पिघला रही है ग्लेशियर
खा रही है सारे दृश्य-
आदमी से बाहर के,
आदमी के भीतर के।

क्या आपने नहीं देखा
अकेले होने पर भी
कुर्सी या जहां आप बैठे हैं
वहां से लटके हुए पैर
हिलते रहते हैं
यहां वहां चलते रहते हैं
हाथ
उंगलियां
कभी कान में
कभी नाक में
जुबान से नहीं तो
अन्य अंगों से
बड़ बड़ बड़ बड़

कोई भी उम्र फरेब से नहीं बची है
कभी बचपन का खेल
कभी जवानी की बेहोशी
कभी प्रौढ़ता की पशुता
कभी बुढ़ापे की बेचारगी
हर सांस में
मैंने सब कुछ किया है
मौत की तैयारी के सिवा

बरसों बरस
दिन ब दिन करीब आती मौत का
इश्तहार करते हुए
सारी इंसानि‍यत को बीमार करते हुए
लोग चुप नहीं बैठते
ब्लॉगिंग
बज्जिंग करते हैं।

नहीं नहीं जनाब
हम आपकी बात नहीं कर रहे
आप मुझे ही लो ना।

Thursday 1 April 2010

दृष्टिकोण


 
  • किसी भी स्त्री को सर्वोत्तम पति या जीवनसाथी के रूप में मिलने वाला पुरूष एक पुरातत्ववेत्ता हो सकता है, क्योंकि जैसे जैसे वो स्त्री पुरानी होती जायेगी पुरातत्ववेता की रूचि उसमें बढ़ती जायेगी।
    - अगाथा क्रिस्टी
  • याद रखिये सुन्दरता अन्दर से आती है - बोतल के अन्दर से, लिपिस्टक, क्रीम पावडर्स की बोतलों के अन्दर से।
  • किसी की भी बुराई करने से पहले आपको चाहिये कि आप उस व्यक्ति के जूते पहन के कुछ मील दूर तक चलें इससे ये होगा कि जब आप बुराई करेंगे तो आप उससे मीलों दूर होंगे और उसके जूते भी आपके पास होंगे।
    - फ्रिडा नोरिस
  • मैं रोज सुबह उठकर अखबार की वह लिस्ट देखता हूं जिसमें दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों की सूची होती है। और जब मैं रोज खुद को उस सूची में नहीं पाता, मैं अपनी कुछ हजार रूपल्ली की क्लर्की की नौकरी के लिए दफ्तर निकल जाता हूं।
  • मैं इसलिए शाकाहारी नहीं हूं कि मैं जानवरों से प्यार करता हूं, मैं इसलिए शाकाहारी हूं क्योंकि मुझे पेड़-पौधों-साग सब्जी से सख्त नफरत है।
  • यदि आप जीवन को उसकी गहराई तक नहीं जी रहे हैं तो आपनें दुनियां से बहुत सारे किनारे बनाये हुए हैं।
  • यदि आपके पास बोलने के लिए कुछ है, और आप कुछ नहीं बोल रहे हैं तो आप वास्तव में झूठ बोल रहे हैं।
  • हमारे लिए हर वह छोटी सी घटना भी अप्रत्याशित होती है, जिसकी हम आशा नहीं करते।
  • प्रेम वह क्षणिक पागलपन होता है जिसका इलाज विवाह में ढूंढा जाता है।
  • असली विवाहित व्यक्ति वह होता है जो हर वह शब्द समझ ले जो उसकी पत्नी ने नहीं कहा।
  • किसी भी व्यक्ति को उन स्थानों पर नहीं जाना चाहिए जहां बहुत भीड़ होती है, क्योंकि उसके जाने से भीड़ और बढ़ेगी।
  • कहीं आपका निर्णय वह ख्याल ही तो नहीं... जहां आपकी सोच थक गई है।
  • जब बच्चे कुछ भी नहीं कर रहे होते, तब वह किसी बड़ी खुराफात को अंजाम दे रहे होते हैं।
  • दुनियां में दो चीजें अनन्त हैं ब्रहमाण्ड और मूर्खता और ब्रहमाण्ड के बारे में मैं आश्वस्त हूं।
    अल्बर्ट आंइस्टीन
  • जब हम ईश्वर से संवाद कर रहे होते हैं तो हम उसे प्रार्थना कहते हैं और जब ईश्वर किसी व्यक्ति से बाते करने लगता है तो इसे पागलपन।
  • जब आपको नहीं मालूम हो कि आप कहां जा रहे हैं तो आपको बहुत ही सावधान रहना चाहिए क्योंकि इससे आप वहां नहीं पहुंचेगे जहां आपको होना चाहिए।