Monday 21 December 2009

गर्मी बुझने ना पाये



दिल की जमीं पर बादल छाये,
उम्मीद का सूरज ठण्डा है,
सपनों पर कोहरा छाया है,
तदबीरों पर बर्फ गिरी है।

जमे-ठिठुरते इस मौसम में,
कंपकंपाती छांव से धूप खो गई है।

ओस के गहरे गीलेपन से,
शाम की सड़कें काली हुई हैं।

रात चली तो चाँद की खिड़की,
बिन आवाज ही बन्द हुई है।
चाँदनी पिघल रही बन शबनम।

शहर के सारे दीवानों को,
बेघर, आवारा इन्सानों को
जिस्म संभाल के रखने होंगे।

मौत के नक्श फिर चुभने लगे हैं,
बाजारों में बैठे कचरे के,
अब तो अलाव जलाने होंगे,

ढूंढ-ढूंढ कर लानी होंगी
भले बुरे के भेद से हटकर,
सूखी, जलने के माफिक चीजें
कि,
सीनों में गर्मी बुझने ना पाये।

7 comments:

अजय कुमार said...

ढूंढ-ढूंढ कर लानी होंगी
भले बुरे के भेद से हटकर,
सूखी, जलने के माफिक चीजें
कि,
सीनों में गर्मी बुझने ना पाये।

अच्छी और बेहतरीन भावों से सजी रचना

नीरज गोस्वामी said...

खूबसूरत अलफ़ाज़ लिए दिलकश रचना...वाह...
नीरज

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

शहर के सारे दीवानों को,
बेघर, आवारा इन्सानों को
जिस्म संभाल के रखने होंगे।

मौत के नक्श फिर चुभने लगे हैं,
बाजारों में बैठे कचरे के,
अब तो अलाव जलाने होंगे !

बहुत सुन्दर !

डॉ टी एस दराल said...

ढूंढ-ढूंढ कर लानी होंगी
भले बुरे के भेद से हटकर,
सूखी, जलने के माफिक चीजें
कि,
सीनों में गर्मी बुझने ना पाये।

भाव में गहराई है।

वन्दना अवस्थी दुबे said...

ढूंढ-ढूंढ कर लानी होंगी
भले बुरे के भेद से हटकर,
सूखी, जलने के माफिक चीजें
कि,
सीनों में गर्मी बुझने ना पाये।
बहुत सुन्दर.

रंजना said...

Bimb prayog lajawaab hai aapki is rachna me...

Bhavbhari bahut hi sundar rachna...Waah !

देवेन्द्र पाण्डेय said...

अच्छे भाव।

Post a Comment