Monday 28 December 2009

रोज की तरह



रोज की तरह
हम सुबह उठकर
घर से
बाहर मोहल्ले की ओर देखते हैं
कि आज के सूरज के नयेपन जैसा
कुछ हम में भी उगेगा।

पर हर ढलती शाम को
काम धंधे से लौटते हुए
हमने यही पाया है
कि सवेरा तो सवेरा
हमारी यह शाम भी
कल की शाम की तरह ही
हजारों साल बासी है।

यही बासापन
रोज
सुबह से शाम तक
हमें परेशान करता है।

इसलिए
हमारी कोई भी कविता
बासे शब्दों से
कभी भी
निवृत्त नहीं हो पाती।

हम दि‍ल से नहीं चाहते
कि‍ ये पीलेपन और फफूंद लि‍ये शब्‍द
कि‍सी को दि‍खायें।

पर मेरे ख्‍याल से
अब बचा ही क्‍या है, इनके सि‍वा।

6 comments:

दिगम्बर नासवा said...

इस जीवन की आपाधापी में कितनी ही नये कविताएँ अंधेरे की परछाई से छिप नही पाती ..........
अच्छी रचना है ........

पी.सी.गोदियाल "परचेत" said...

हम दि‍ल से नहीं चाहते
कि‍ ये पीलेपन और फफूंद लि‍ये शब्‍द
कि‍सी को दि‍खायें।

पर मेरे ख्‍याल से
अब बचा ही क्‍या है, इनके सि‍वा।

Kya khoob baat kahee !

अनिल कान्त said...

अच्छा लिखते हैं आप.
रचना पढ़कर अच्छा लगा.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

इसलिए
हमारी कोई भी कविता
बासे शब्दों से
कभी भी
निवृत्त नहीं हो पाती।

बहुत सुंदर पंक्तियों के साथ ...सुंदर रचना....

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

इसलिए
हमारी कोई भी कविता
बासे शब्दों से
कभी भी
निवृत्त नहीं हो पाती।

बहुत सुंदर पंक्तियों के साथ ...सुंदर रचना....

हास्यफुहार said...

बहुत अच्छी कविता।
आने वाला साल मंगलमय हो।

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