Tuesday 9 December 2008

महामना जे. कृष्णमूर्ति जी के आज के उद्धरण का अनुवाद

एक धार्मिक व्यक्ति वो व्यक्ति नहीं जो भगवान को ढूंढ रहा है। धार्मिक आदमी समाज के रूपांतरण से संबद्ध है, जो कि वह स्वयं है। धार्मिक आदमी वो व्यक्ति नहीं जो असंख्य रीति रिवाजों - परंपराओं को मानता/करता है। अतीत की संस्कृति, मुर्दा चीजों में जिंदा रहता है। धार्मिक आदमी वो व्यक्ति नहीं है जो निर्बाध रूप से बिना किसी अंत के गीता या बाईबिल की व्याख्या में लगा हुआ है, या निर्बाध रूप से जप कर रहा है, सन्यास धारण कर रखा है - ये सारे तो वो व्यक्ति हैं जो तथ्य से पलायन कर रहे हैं, भाग रहे हैं। धार्मिक आदमी का संबंध कुल जमा, संपूर्ण रूप से समाज को जो कि वह स्वयं ही है, को समझने वाले व्यक्ति से है। वह समाज से अलग नहीं है। खुद के पूरी तरह, संपूर्ण रूप से रूपांतरण अर्थात् लोभ-अभिलाषाओं, ईष्र्या, महत्वाकांक्षाओं के अवसान द्वारा आमूल-रूपांतरण और इसलिए वह परिस्थितियों पर निर्भर नहीं, यद्यपि वह स्वयं परिस्थितियों का परिणाम है - अर्थात् जो भोजन वह खाता है, जो किताबें वह पढ़ता है, जो फिल्में वह देखने जाता है, जिन धार्मिक प्रपंचों, विश्वासों, रिवाजों और इस तरह के सभी गोरखधंधों में वह लगा है। वह जिम्मेदार है, और क्योंकि वह जिम्मेदार है इसलिए धार्मिक व्यक्ति स्वयं को अनिवार्यतः समझता है, कि वो समाज का उत्पाद है समाज की पैदाईश है जिस समाज को उसने स्वयं बनाया है।इसलिए अगर यथार्थ को खोजना है तो उसे यहीं से शुरू करना होगा। किसी मंदिर में नहीं, किसी छवि से बंधकर नहीं चाहे वो छवि हाथों से गढ़ी हो या दिमाग से। अन्यथा कैसे वह कुछ खोज सकता है जो संूपर्णतः नया है, यथार्थतः एक नयी अवस्था है.
क्या हम खुद में धार्मिक मन की खोज कर सकते हैं। एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में वास्तव में वैज्ञानिक होता है। वह अपनी राष्ट्रीयता, अपने भयों डर, अपनी उपलब्धियों से गर्वोन्नत, महत्वाकांक्षाओं और स्थानिक जरूरतों के कारण वैज्ञानिक नहीं होता। प्रयोगशाला में वह केवल खोज कर रहा होता है। पर प्रयोगशाला के बाहर वह एक सामान्य व्यक्ति की तरह ही होता है अपनी पूर्वअवधारणाओं, महत्वाकांक्षाओं, राष्ट्रीयता, घमंड, ईष्र्याओं और इसी तरह की अन्य बातों सहित। इस तरह के मन की पहुंच ‘धार्मिक मन’ तक कभी नहीं होती। धार्मिक मन किसी प्रभुत्व केन्द्र से संचालित नहीं होता, चाहे उसने पारंपरिक रूप से ज्ञान संचित कर रखा हो, या वह अनुभव हो (जो कि सच में परंपराओं की निरंतरता, शर्तों की निरंतरता ही है।) पंरपरा यानि शर्त, आदत।
धार्मिक सोच, समय के नियमों के मुताबिक नहीं होती, त्वरित परिणाम, त्वरित दुरूस्ती सुधराव सुधार समाज के ढर्रों के भीतर। धार्मिक मन रीति रिवाजी मन नहीं होता वह किसी चर्च-मंदिर-मस्जिद-गं्रथ, किसी समूह, किसी सोच के ढर्रे का अनुगमन नहीं करता।धार्मिक मन वह मन है जो अज्ञात में प्रवेश करता है और आप अज्ञात में नहीं जा सकते, छलांग लगा कर भी नहीं। आप पूरी तरह हिसाब लगाकर बड़ी सावधानीपूर्वक अज्ञात में प्रवेश नहीं कर सकते। धार्मिक मन ही वास्तव में क्रांतिकारी मन होता है, और क्रांतिकारी मन ‘जो है’ उसकी प्रतिक्रिया नहीं होता। धार्मिक मन वास्तव में विस्फोटक ही है, सृजन है। और यहां शब्द ‘सृजन’ उस सृजन की तरह न लें जिस तरह कविता, सजावट, भवन या वास्तुशिल्प, संगीत, काव्य या इस तरह की चीजें। ये सृजन की एक अवस्था में ही हैं।

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